Saturday, May 12, 2012

Anjali Gopalan.................अंजलि गोपालन


Anjali Gopalan.................अंजलि गोपालन 



Anjali Gopalan
We all heard of West Bengal Chief Minister Mamata Banerjee making it to the Time magazine's list of the 100 most influential people in the world. Another Indian to make it to the coveted list is advocate and gender rights activist Anjali Gopalan.

अंजलि गोपालन 
हम सबने सुना हैं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को दुनिया के 100 प्रभावशाली लोगों की सूची में जगह दी गई है। टाइम मैगजीन की ताजा सूची में जिस दूसरे भारतीय का नाम हैं वो हैं अंजलि गोपालन | वे भारत में एचआईवी या एड्स के मरीजों के अधिकारों के लिए संघर्ष कर रही हैं। 

भारत में एचआईवी या एड्स के मरीजों को संभवत: अलग-थलग रखा जाता है, लेकिन ब्रुकलिन से नई दिल्ली आईं अंजलि का जीवन ऎसे ही लोगों को समर्पित है। पेशे से वकील अंजलि समलैंगिकों के अधिकारों और यौनउत्पीडित लोगों के लिए भी आवाज उठाती रही हैं।

अंजलि गोपालन एक वो महिला है जिसने पत्रकारिता में नाम कमाना चाहा | अपनी कलम की ताकत से समाज को एक नयी दिशा देना चाहती थी पर अचानक ही एच.ई.वी से प्रभावित लोगों के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया | यहाँ तक की माँ नहीं बनने का फैसला कर लिया क्यूंकि जीवन का लक्ष्य था पीड़ितों की मदद करना | आज वह जिस मोकाम पर है यहाँ तक पहोचने के लिए उन्होंने मानसिक व सामाजिक तौर पर काफी संघर्ष किया है | आज से १७ साल पहेले जब अंजलि अमेरिका से लोट कर भारत में अपने काम की शुरुवात की तो ऐसा लगा कि वह जैसे पत्थर पर सर घिस रही है | भारत की जो संस्कृति है और जीवन जीने का जो सामाजिक ढाचा है उसमें खुलापन कम और नैतिक विश्वास का आधार ज्यादा है | ऐसे में अंजलि ने एच.ई.वी व एड्स पीधितों के लिए काम करना शुरू किया तोह उनके मन में ख्याल आया की क्यूँ न लोग एच.ई.वी के संपर्क में न आये | इसकी शुरुवात उन्होंने गृहिनियों के साथ की | अंजलि कहेती है प्रशनों का उत्तर देना और सामने वाले को संतुष्ट बहुत ही मुश्किल काम था लेकिन अंजलि ने भी कमर कस ली थी की उन्हें सफलता पानी थी और इसका नतीजा है नाज फाउनडेशन इस फाउनडेशन का तालुक सिर्फ एच ई वी + स्त्री और पुरुषों से ही नहीं बल्कि बच्चें व हर उस व्यक्ति के साथ है जिसको हमारी ज़रुरत है | 

राजनीति शास्त्र में एम् ए के साथ आई आई एम् सी से पत्रिकारिता में इनटरनेशनल डेवेलपमेट में पी जी डिपलोमा करने बाद अंजलि ने पी.टी. आई व दूरदर्शन में काम किया पर अपने कम से उन्हें संतुष्टि नहीं हुई |इसलिए पीटीआई और दूरदर्शन में काम करने के बाद किस्मत उन्हें एक ऐसी मुहिम में अमेरिका ले गई, जिसने उनके सोचने और काम करने का तरीका ही बदल दिया। पहले अमेरिका और फिर भारत में कुल मिलाकर अठारह साल की मुहिम में अंजलि गोपालन ने समलैंगिकों और एचआईवी-एड्स पीड़ितों के हक में जैसी लड़ाई लड़ी, वह अपनी मिसाल आप है।

चर्चित अमेरिकी पत्रिका टाइम ने दुनिया की सौ महत्वपूर्ण शख्सियतों में शुमार करते हुए उनकी प्रशस्ति में लिखा है- 'नाज फाउंडेशन के जरिये गोपालन ने भारत में समलैंगिकों और यौन अल्पसंख्यकों के अधिकारों के लिए किसी और की तुलना में ज्यादा काम किया है।' जिस देश में एड्स से पीड़ित होना सामाजिक बहिष्कार की वजह बनता है और जहां समलैंगिकों के हक में आवाज उठाने को भी अशालीन माना जाता है, वहां इस तरह की सामाजिक मुहिम चलाना, वह भी एक स्त्री द्वारा, आसान काम नहीं था।

उन्होंने 1994 में दिल्ली में देश की पहली एचआईवी/एड्स क्लिनिक की स्थापना की थी। उसके सात साल बाद एचआईवी/एड्स से पीड़ित अनाथ बच्चों के लिए उन्होंने देश का पहला केयर होम स्थापित किया, जिसमें अभी करीब 30 बच्चे रहते हैं। इनमें से ज्यादातर ऐसे एड्सपीड़ित बच्चे हैं, जिन्हें उनके परिवार वाले छोड़ गए थे। करीब तीन साल पहले दिल्ली उच्च न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को असांविधानिक बताते हुए समलैंगिकों के हक में जो फैसला दिया था, उसके पीछे अंजलि गोपालन और उनकी संस्था का ही उद्यम था।

शुरू में न्यायालय ने उनकी याचिका पर विचार करने से इनकार कर दिया था, लेकिन उनकी अनथक कोशिशों को देख अदालत ने ऐतिहासिक पहल की। चाहे वह महिलाओं को यौन रोगों से दूर रहने की सलाह देनी हो, लोगों को अपने समलैंगिक बच्चों को स्वीकारने का सामाजिक दबाव बनाना हो या एड्स पीड़ित बच्चों के सिर पर ममता भरा हाथ रखते हुए उन्हें जीवन की मुख्यधारा में शामिल करने का काम हो, नाज फाउंडेशन ने इन तमाम क्षेत्रों में विलक्षण काम किया है। एड्स पीड़ितों के अलावा अंजलि आवारा कुत्तों को भी शरण देती हैं। उनकी इन्हीं उपलब्धियों को देखकर केंद्र सरकार ने 2007 में उन्हें सम्मानित किया था।

नाज के आश्रम में इस वक्त ३० बच्चे है | कुछ अनाथ तो कुछ एच.ई.वी से प्रभावित है | इन बच्चो को खाना , पढाई और दूसरी चीज़ें बिलकुल मुफ्त उपलब्ध कराइ जाती है | अंजलि हर रोज़ इन बच्चो के साथ और यहाँ इलाज के लिये आने वाले स्त्री, पुरुष के साथ समय गुज़रती है | अंजलि का कहना है कि यही उसका परिवार है और उसकी हर ज़रुरत को पूरा करना उसका लक्ष्य है और उनके इस फैसले में उनके पति व परिवार वालो ने पूरा साथ दिया | नाज को चलने के लिये पहेले उनके पिता ने उनकी सहायता की और आज देश ही नहीं बल्कि विदेशो से भी आर्थिक सहायता मिल रही है | अंजलि एड्स पीढित को मुफ्त शिक्षा देने के साथ साथ एड्स जागरूकता को लेकर जगह जगह कैंप लगाती है |


Anjali Gopalan

A pioneer in the field of HIV prevention and care in India, Anjali Gopalan has stepped in to fill the deepest gap that exists in preventive and curative work in India today, by designing a model for an integrated system in children’s care facilities which includes HIV+ children.

With a Masters in International Development and another in Journalism, Anjali worked for many years with community-based organizations in New York City; providing direct services for HIV/AIDS and substance abuse issues. Circumstances led her to live and care for a friend with HIV, giving her first-hand knowledge and insight into the issues affecting HIV+ people. Returning to India in the early 1990s Anjali saw a tremendous gap in AIDS prevention and care services. Drawing upon her work with community groups in the U.S., Anjali founded the Naz Foundation Trust.
Working at the grass-roots level, Anjali understands that AIDS has reached epidemic proportions in India. Yet funding, government and media attention goes to states with the highest prevalence, and to groups that are deemed high-risk, such as sex workers and truck drivers. “The situation is skewed,” explains Anjali, “The messages coming from the media and the government is that the general population is not at risk.” Anjali’s role has been to raise money and awareness for these populations left out of national AIDS policy. For example, creating information that addresses the needs of women has been a major focus of her work at the Naz Foundation; the board comprises health economists, doctors, businessmen, and lawyers. 
Her work with children began quite by accident. Six years ago a child with HIV was abandoned at the Foundation’s office, and they couldn’t find an institution or hospital to take him. Anjali was forced to look after the child, which enabled her learn how dire the situation was for HIV+ children. This experience resulted in the Center, which is today home to thirty children. The actor Richard Gere funded the organization for three years, until she received a large endowment from her deceased brother to create a home for the children. 
Currently, Anjali spends a lot of time fundraising, advocating for systemic change, and in trainings; the daily logistics of running the care home has been given to her colleagues. Apart from being the Founder and CEO of Naz Foundation and Naz Care Home, she is on the board and advisory panels of several national and international organizations including International AIDS Vaccine Initiative, the NGO Core Group of the National Coalition for Health Initiatives, and the Resource Centre for Legislators.

Anjali currently lives and works in Delhi.Anjali`s Naz Foundation, a citizen organization (CO) it offers a range of prevention, support, and care programs that meet the needs of underserved populations around sexual identity and related issues, especially for women and MSM (men having sex with men) groups. Anjali is widening the scope of HIV prevention and care services by demonstrating how HIV+ children can be mainstreamed in existing home child-care and facilities. This is a necessity in a resource impoverished country like India, and will be beneficial to both the government and society. Anjali is building nationwide awareness around care of orphaned and vulnerable HIV+ children. Initially, she has prepared a training manual and provides training programs to build the capacity and skills of state and CO residential institutions providing care to children with AIDS—reducing stigma and discrimination. The project seeks to provide more opportunities for the care and support of HIV+ children in their residences. Anjali’s program monitors and is able to detect infections and effective treatment; admission of abandoned children who are denied adoption due to their HIV+ status, with special focus on the girl child who is doubly discriminated against by families who lay greater premium on the boy child; maintain confidentiality regarding their status; ensure their right to education and adequate healthcare; lobby for laws to protect children with the disease; sensitize officials, doctors, teachers, and care-givers at all levels; and last, but not the least, cater to the affected children’s unique psychosocial needs. She has also created a home-based care program to train families in care-giving. Anjali believes a child should only be placed in institutional care if orphaned, and she will not admit children with extended families. The home-based care program—which currently supports 350 families—is designed to ultimately empower communities to respond as well as possible to the epidemic.

Rani Gaidinliu......................रानी गाइदिनल्यू



Rani Gaidinliu......................रानी गाइदिनल्यू 


Rani Gaidinliu
The True Freedom Fighter
रानी गाइदिनल्यू 

रानी गाइदिनल्यू (जन्म- 26 जनवरी, 1915 ई.) ने भारत को आज़ादी दिलाने के लिए नागालैण्ड में अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों को अंजाम दिया था।झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के समान ही वीरतापूर्ण कार्य करने के लिए इन्हें 'नागालैण्ड की रानी लक्ष्मीबाई' कहा जाता है। जब रानी गाइदिनल्यू को अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण अंग्रेज़ों ने गिरफ्तार कर लिया, तब पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कई वर्षों की सज़ा काट चुकी रानी को रिहाई दिलाने के प्रयास किए। किंतु अंग्रेज़ों ने उनकी इस बात को नहीं माना, क्योंकि वे रानी से बहुत भयभीत थे और उन्हें अपने लिए ख़तरनाक मानते थे।
जन्म तथा स्वभाव
'नागालैंड की रानी लक्ष्मीबाई' कही जाने वाली रानी गाइदिनल्यू का जन्म 26 जनवरी, 1915 ई. को मणिपुर राज्य के पश्चिमी ज़िले में हुआ था। वह बचपन से ही बड़े स्वतंत्र और स्वाभिमानी स्वभाव की थीं। 13 वर्ष की उम्र में वह नागा नेता जादोनाग के सम्पर्क में आईं। जादोनाग मणिपुर से अंग्रेज़ों को निकाल बाहर करने के प्रयत्न में लगे हुए थे। वे अपने आन्दोलन को क्रियात्मक रूप दे पाते, उससे पहले ही गिरफ्तार करके अंग्रेज़ों ने उन्हें 29 अगस्त,1931 को फांसी पर लटका दिया।
क्रांतिकारी जीवन
अब स्वतंत्रता के लिए चल रहे आन्दोलन का नेतृत्व बालिका गाइदिनल्यू के हाथों में आ गया। उसने गांधी जी के आन्दोलन के बारे में सुनकर सरकार को किसी प्रकार का कर न देने की घोषणा की। उसने नागाओं के कबीलों में एकता स्थापित करके अंग्रेज़ों के विरुद्ध संयुक्त मोर्चा बनाने के लिए क़दम उठाये। उसके तेजस्वी व्यक्तित्व और निर्भयता को देखकर जन-जातीय लोग उसे सर्वशक्तिशाली देवी मानने लगे थे। नेता जादोनाग को फांसी देने से लोगों में असंतोष व्याप्त था, गाइदिनल्यू ने उसे सही दिशा की ओर की मोड़ा। सोलह वर्ष की इस बालिका के साथ केवल चार हज़ार सशस्त्र नागा सिपाही थे। इन्हीं को लेकर भूमिगत गाइदिनल्यू ने अंग्रेज़ों की फ़ौज का सामना किया। वह गुरिल्ला युद्ध और शस्त्र संचालन में अत्यन्त निपुण थी। अंग्रेज़ उसे बड़ी खूंखार नेता मानते थे। दूसरी ओर जनता का हर वर्ग उसे अपना उद्धारक समझता था।
गिरफ़्तारी
इस आन्दोलन को दबाने के लिए अंग्रेज़ों ने वहाँ के कई गांव जलाकर राख कर दिए। पर इससे लोगों का उत्साह कम नहीं हुआ। सशस्त्र नागाओं ने एक दिन खुले आम 'असम राइफल्स' की सरकारी चौकी पर हमला कर दिया। स्थान बदलते, अंग्रेज़ों की सेना पर छापामार प्रहार करते हुए गाइदिनल्यू ने एक इतना बड़ा क़िला बनाने का निश्चय किया, जिसमें उसके चार हज़ार नागा साथी रह सकें। इस पर काम चल ही रहा था कि 17 अप्रैल, 1932 को अंग्रेज़ों की सेना ने अचानक आक्रमण कर दिया। गाइदिनल्यू गिरफ्तार कर ली गईं। उस पर मुकदमा चला और कारावास की सज़ा हुई। उसने चौदह वर्ष अंग्रेज़ों की जेल में बिताए।
अंग्रेज़ों का भय
1937 में पंडित जवाहरलाल नेहरू को असम जाने पर गाइदिनल्यू की वीरता का पता चला तो उन्होंने उसे 'नागाओं की रानी' की संज्ञा दी। नेहरू जी ने उसकी रिहाई के लिए बहुत प्रयास किया, लेकिन मणिपुर के एक देशी रियासत होने के कारण इस कार्य में सफलता नहीं मिली। अंग्रेज़ अब भी उसे ख़तरनाक मानते थे और उसकी रिहाई से भयभीत थे।
रिहाई तथा सम्मान
1947 में देश के स्वतंत्र होने पर ही वह जेल से बाहर आईं। नागा कबीलों की आपसी स्पर्धा के कारण रानी को अपने सहयोगियों के साथ 1960 में भूमिगत हो जाना पड़ा था। स्वतंत्रता संग्राम में साहसपूर्ण योगदान के लिए प्रधानमंत्री की ओर से ताम्रपत्र देकर और राष्ट्रपति की ओर से 'पद्मभूषण' की मानद उपाधि देकर उन्हें सम्मानित किया गया। 


Rani Gaidinliu - The True Freedom Fighter
Rani Gaidinliu (26 January 1915 - 17 February 1993) - was the first female freedom fighter from Manipur, India. 'Free India' was a dream of Rani Gaidinliu under the British rule. She was honoured as a 'freedom fighter' and was also awarded a 'Padma Bhushan'. Late Prime Minister of India, Jawaharlala Nehru, described her as the 'Daughter of the hills' or Queen of her people. She was also known as 'Rani Ma'.

Rani Gaidinliu was born to Lothonang Pamei (father) and Kachaklenliu (mother) in Longkao (Nungao) village of Manipur. She was the 5th child among her six sisters and a brother. Since her childhood days, Gaidinliu was known for her dynamic, multifaceted and virtuous personalities.

The year Rani Ma was born, Manipur, along with rest of the country was the victim of British colonial rule. In 1927, when she was just 13 years old, she met prominent local leader Haipou Jadonang at Puilon Village. And persuaded by his ideologies and principles, she launched the revolutionary movement against the British in the same year.

In 1931, while returning with Gaidinliu from 'Bhubon Cave' in Cachar after worshiping God, Jadonang was captured by the British. After he was hanged on Aug 29, 1931, by the British, Gaidinliu took over the leadership and challenged the British officials. When The British Govt. tried to suppress her movement, she went underground.

The army made a house to house search. Though the British announced a reward of Rs 500 to anybody who would inform them about her whereabouts, the entire village stood together in support of Rani. Finally the British Govt. captured her on 17 October, 1932 in Poilwa (Pulomi) Village (present Nagaland), and sentenced her to life imprisonment. Rani Gaidinliu was just 16 years old then.

Pandit Jawaharlal Nehru met her at Shillong Jail in 1937 and described Gaidinliu as the daughter of the Hills and gave her the title of “Rani Gaidinliu” or Queen of her people. 

After serving the prison term of 14 years in various jails in Guwahati, Aizawl,Tura, Shillong and elsewhere, 'Rani Ma' was freed in 1947 after India gained freedom. She was however not allowed to return home at her native village in Manipur that she stayed at Vimrap Village of Tuensang with her younger brother Marang till 1952. It was a tearful re-union of sister and brother when they could not communicate well in their mother tongue at that time. (Due to long separation of nearly 2 decades).

After her release she organised a resistance movement against the Naga National Council (NNC) )-led insurgents in 1966 and had to go underground again. On the request of Central government and state governments of Nagaland and Manipur, she came over-ground and stayed in Kohima from 1966 to 1992.

The travesty is that she was not allowed to visit her people for whose freedom, religion and culture she sacrificed her prime of youth. Same reason was given that if she was allowed to return to her 'Heraka' people, the movement for preservation, protection and promotion of her forefather’s religion and eternal culture would catch-up momentum. A section the Naga society, who was under deep influence of christianity, was opposed to 'Heraka movement' and Rani Gaidinliu. Rani Ma was kept in Yimrup village of Tuensang district; nearly 300 km away from her people.

It was a matter of regret that leaders of Nagaland condemned her as ‘kampai’ (kachcha Naga) and Christian missionaries cursed her as the worshiper of the 'satan' (devil) and heathen.

Rani Ma reformed the traditional relilgion and named it “Heraka” which means “Pure”. She propounded the worship of philosophical God —

the Almighty. She evolved the scientific mode of celebration of various traditional festivals of Nagas. There lies the greatness of Rani Gaidinliu.

“Invasion by foreign religion and foreign culture will pose danger to Naga identity. Beware of this danger”.
—Rani Gaidinliu had said.

Dr Tessy Thomas.....................डा टेसी थॉमस

Dr Tessy Thomas - is first woman scientist to head missile project

डा टेसी थॉमस – पहली महिला वैज्ञानिक जिन्होंने मिसाइल प्रोजेक्ट का नेतृत्व किया .

दुनिया को दिखाई है भारत ने अपनी ताकत. देश की ताकत की मिसाल अग्नि 5 मिसाइल का ओडिशा के बालासोर से परीक्षण हुआ है. 20 मिनट में अग्नि को अपने लक्ष्य तक पहुंचना था. ठीक 20 मिनट में ही अग्नि ने अपना लक्ष्य पूरा कर लिया. जिनकी देखरेख में अग्निपरीक्षा में सफल हुआ है देश मिलिए उस अग्निपुत्री से उनका नाम है टेसी थॉमस. मिसाइल महिला, अग्निपुत्री...और न जाने कितने नामों से नवाजी गई इस महिला ने एक ऐसे क्षेत्र में महिलाओं के दमखम का एहसास कराया, जहां कभी पुरुषों की तूती बोलती थी। देश की सुरक्षा को अचूक सामरिक कवच पहनाने वाली इस महिला का नाम है टेसी थॉमस.


नाम- टेसी थॉमस
बचपन-केरल के अलप्पुझा में बीता
कोझीकोड के त्रिशूर इंजीनियरिंग कॉलेज से बी.टेक
पुणे के डिफेंस इंस्टिट्यूट आॅफ एडवांस्ड टेक्नोलॉजी से एम.टेक
पति-भार तीय नौसेना में कमोडोर
पुत्र-तेजस(मिसाइल के नाम पर पुत्र का नाम तेजस रखा)
1988 से ही अग्नि कार्यक्रम से जुड़ी हैं
2008 में अग्नि परियोजना निदेशक बनीं
अग्नि-2,3,से भी जुड़ी रहीं 
अग्नि-4 और अग्नि-5 का नेतृत्व कर रही हैं
उनकी टीम मे 20 महिलाएं हैं
उपाधियां-मिसाइल महिला, अग्निपुत्री

देश की सुरक्षा एक ऐसा क्षेत्र, जहां महिलाएं सशक्तिकरण की राह पर हैं और अपने पक्ष की मजबूत दावेदारी दिखा रही हैं। इस क्षेत्र में आखिर महिलाओं की भागीदारी को कम क्यूं आंका जाए। पिछले 20 सालों से टेसी थॉमस इस क्षेत्र में मजबूती से जुड़ी हुई हैं। रक्षा अनुसंधान व विकास संगठन (डीआरडीओ) की वैज्ञानिक डॉ. टेसी थॉमस डीआरडीओ की एक महत्वपूर्ण परियोजना पर काम कर रही हैं। वह 1988 से अग्नि श्रृंखला के प्रक्षेपास्त्रों से जुडी हैं और अग्नि-2 और अग्नि-3 की मुख्य टीम का हिस्सा थीं। थॉमस पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम की टीम में भी काम कर चुकी हैं। उन्होंने कहा कि जब मैंने यहां प्रवेश किया था, तब कलाम सर प्रयोगशाला के निदेशक थे। उन्होंने ही मुझे अग्नि परियोजना दी थी। टेसी थॉमस पहली भारतीय महिला हैं, जो देश की मिसाइल प्रोजेक्ट को संभाल रही हैं। टेसी थॉमस ने इस कामयाबी को यूं ही नहीं हासिल किया, बल्कि इसके लिए उन्होंने जीवन में कई उतार-चढ़ाव का सामना भी करना पड़ा। उन्हें इन कदमों पर चल कर कामयाबी मिली: 

आमतौर पर रणनीतिक हथियारों और परमाणु क्षमता वाले मिसाइल के क्षेत्र में पुरुषों का वर्चस्व रहा है। इस धारणा को तोड़कर डॉ. टेसी थॉमस ने सच कर दिखाया कि कुछ उड़ान हौसले के पंख से भी उड़ी जाती है। साल 1988 में टेसी अग्नि परियोजना से जुड़ीं और तभी से लगातार वह इस परियोजना में काम कर रही हैं। उनकी प्रेरणा से डीआरडीओ में दो सौ से ज्यादा महिलाएं कार्यरत हैं। उनमें से करीब 20 तो सीधे तौर पर उनसे जुड़ी हैं। शुरू में लोग उनसे यह कहते थे कि आप किस दुनिया में काम कर रहीं है, यहां तो केवल पुरुषों का वर्चस्व है, तब वह मुस्करा देती थीं। टेसी की मेहनत का ही नतीजा है कि आज कोई यह नहीं कह सकता कि परमाणु मिसाइल बनाने का क्षेत्र सिर्फ पुरुषों का है।

टेसी करीब तीन साल पहले ही अग्नि परियोजना की प्रमुख बनी थीं और उन्हें पहला आघात तब लगा, जब अग्नि-3 मिसाइल का परीक्षण सफल नहीं हो सका। अरबों रुपये की परियोजना का हिस्सा अग्नि-3 का परीक्षण उड़ीसा के बालासोर के पास हुआ और प्रक्षेपण के महज तीस सेकंड के भीतर ही वह समुद्र में जा गिरी। इसकी काफी आलोचना हुई, मगर टेसी और उनकी टीम ने हार नहीं मानी और कहा कि यह नाकामयाबी जरूर है, लेकिन ऐसी नहीं, जो हमारे हौसलों को तोड़ सके। उन्होंने उस विफलता की वजह रही तकनीकी त्रुटि की जिम्मेदारी अपने ऊपर ली और कहा कि हम विफल नहीं हुए हैं, हम फिर कोशिश करेंगे और कामयाब होंगे। जिस परियोजना पर पूरी दुनिया की निगाहें हों, उसकी विफलता का अर्थ टेसी जानती थीं और उसकी कामयाबी का भी। अपनी मेहनत, लगन, निष्ठा और मेधा की बदौलत उन्होंने अपने लक्ष्य को पाया। 

टेसी ने कभी अपने जेहन में यह खयाल नहीं आने दिया कि वह ऐसे क्षेत्र में हैं, जहां पुरुषों का बोलबाला है। उन्होंने आगे बढ़कर अपने वैज्ञानिकों की टीम का नेतृत्व किया और टीम के मनोबल को बनाए रखा। उनके समक्ष चुनौती बहुत बड़ी थी। गोपनीय प्रोजेक्ट होने के कारण कामयाबी का श्रेय तो लगभग नहीं ही था और नाकामी का ठीकरा फोड़ने के लिए देश-विदेश का मीडिया भी तैयार खड़ा था कि कब टेसी के बहाने ही सही, भारत की रक्षा नीति पर हमला करे। मिसाइल की नाकामी भारत को उलाहना देने के लिए पर्याप्त कारण थी। टेसी ने कभी किसी आलोचना की परवाह नहीं की, उन्हें सदा अपने लक्ष्य को पाने की चिंता थी। महिलाओं के मिसाइल क्षेत्र में आने पर वह कहती हैं कि ‘साइंस हैज नो जेंडर।’ उनकी एक महत्वपूर्ण खूबी यह है कि वह अपनी टीम को कामयाबी का श्रेय देने में कभी कोई कोताही नहीं बरततीं। हाल की कामयाबी के लिए उन्होंने कहा है कि यह तो उनकी टीम की उपलब्धि है।

टेसी की दिलचस्पी बचपन से ही विज्ञान और गणित में थी। रॉकेट और मिसाइल से उनका लगाव तब बढ़ा, जब अमेरिका का अपोलो मून मिशन सफल हुआ। उन्होंने छुटपन में ही तय कर लिया था कि उन्हें आगे जाकर इंजीनियर बनना है। कोझिकोड के त्रिसूर इंजीनियरिंग कॉलेज से उन्होंने बीटेक की डिग्री ली और फिर उनका चयन पुणे के डिफेंस इंस्टिटय़ूट ऑफ एडवांस्ड टेक्नोलॉजी से एम टेक के लिए हो गया। डीआरडीओ के ‘गाइडेड वेपन कोर्स’ के लिए चयन होते ही अग्नि-पुत्री के तौर पर उनका सफर शुरू हुआ। उन्होंने ‘सॉलिड सिस्टम प्रोपेलेंट्स’ में विशेष दक्षता प्राप्त की। यही वह तत्व है, जो अग्नि मिसाइल में ईंधन का काम करता है।

टेसी जानती हैं कि वह जो काम कर रही हैं, वह काफी महत्वपूर्ण है, लेकिन इसमें ग्लैमर या प्रसिद्धि अपेक्षाकृत कम है। गोपनीयता के कारण वह सार्वजनिक जीवन में बहुत लोगों से मिलती-जुलती नहीं हैं, मिल-जुल भी नहीं सकतीं। वह अपना ज्यादातर समय अपने काम में ही बिताती हैं। अपनी नई उपलब्धि पर भी मीडिया को जानकारी उन्होंने नहीं दी। जब अग्नि-3 परियोजना विफल हुई थी, तब भी उन्होंने मीडिया से बात नहीं की थी। उनका फलसफा साफ है कि काम खुद बोले, तो बेहतर। महत्वपूर्ण काम है।

वह जानती हैं कि सबसे बड़ा ‘शॉक एब्जॉर्वर’ अगर कोई है, तो वह परिवार ही है। डॉ. कलाम की भले ही वह शिष्या हों, लेकिन उनके उलट टेसी ने शादी की है और उनका एक बेटा है, जिसका नाम मिसाइल के नाम पर ‘तेजस’ रखा है। उनके पति भारतीय नौसेना में कमोडोर हैं। उनके पति भी बेहद व्यस्त जीवन जीते हैं और दोनों को अपनी निजी जिंदगी के लिए बहुत कम वक्त मिल पाता है। इस समस्या का हल उन्होंने यह निकाला है कि जो भी वक्त मिले, उसे क्वालिटी टाइम के रूप में बिताया जाए। टेसी थॉमस खुद मध्यवर्गीय परिवार की हैं और परिवार के मूल्यों को खूब जानती-पहचानती हैं।


Dr. Tessy Thomas 

A rare woman in a male bastion, the 48-year-old was hooked on to science and mathematics from school days, especially wonder-struck at the rocket launches from Thumba on the outskirts of Thiruvananthapuram.
Dr. Tessy Thomas (born in 1964) popularly known as 'Agni Putri', or the daughter of fire, is the Project Director for Agni-V in Defence Research and Development Organisation, Hyderabad. She is the first woman scientist to head a missile project in India.
Tessy hails from Alappuzha, Kerala and did her engineering graduation in Government Engineering College, Thrissur. after completing B.Tech from Thrissur Engineering College, Kozhikode, and an M.Tech in Guided Missile from from the Institute of Armament Technology, Pune (now known as the Defence Institute of Advanced Technology). , this 45 year old who is also tagged as India's missile woman has also worked with the missile man of India , Dr Abdul Kalam the former president of India .
Tessy was associate project director of the 3,000 km range Agni-III missile project. She was the project director for Agni IV which was successfully tested on 2011. Tessy was appointed as the Project Director for 5,000 km range Agni- V in 2009 and is based at the Advanced Systems Laboratory in Hyderabad.. The missile was successfully tested in April 2012.
She has also analysed the reason for the failure of earlier version of Agni III which brought immense help to overcome the shortcomings and successfully launch the Agni III with range of 3,500 km. She has also become the aspiration of millions of women who want to make career in this field. She is also a reflection of a changing scenario of women in India.

as per Tessy herself...

"The world of missiles opened up for me after I happened to be picked as one of 10 youngsters from around the country for a DRDO programme in 1985," Thomas told in a telephone interview, while awaiting a flight from Bhubaneswar after being the toast of the nation earlier in the day.
Right after she landed in DRDO, everything just happened, she says. And that includes a stint as faculty for guided missiles for DRDO in Pune, and having former President APJ Abdul Kalam as her director.
Her own career went ballistic, when she headed the Agni-IV team as project director for vehicles and mission, and was project director (mission) for the more sophisticated Agni V launch.
What does she have to say about a country which has women defence mission directors and, at the same time, rampant female infanticide? "Science shows no gender discrimination, and in that sense offers hope to a society where discrimination is practised.
Here in DRDO, we have a good example of a number of women scientists, who try and balance work and family," she says. Her husband Saroj Kumar Patel is a naval officer based in Mumbai, and son Tejas - named after India's light combat jet - is completing his engineering in Vellore.
Thomas would ideally like to unwind with a game of badminton and some cooking, but "that hasn't happened over the past two years", thanks to the latest editions of the Agni missile programme.
Now that Agni-V has been successfully test launched, would she care more for the trajectory of the shuttle cock? "Well, I now have my sights on the multiple independent re-entry vehicle," says the multi-tasking scientist.


Sindhutai Sapkal.................सिंधुताई सपकाल





Sindhutai Sapkal.................सिंधुताई सपकाल

Sindhutai Sapkal


Few of her awards:

* 2010 - Ahilyabai Holkar Award, given by the Government of Maharashtra to social workers in the
field of woman and child welfare [3]

* 2008 - Woman of the Year Award, given by daily Marathi newspaper Loksatta

* Sahyadri Hirkani Award (Marathi: सह्याद्रीची हिरकणी पुरस्कार)

* Rajai Award (Marathi: राजाई पुरस्कार)

* Shivlila Mahila Gourav Award (Marathi: शिवलीला महिला गौरव पुरस्कार)

सिंधुताई सपकाल


हम अक्सर शिकायत करते हैं कि अगर हमें सुविधाएं मिलती तो हम भी कुछ बन कर दिखा देते। पर अगर हम अपने आस-पास ध्यान से देखें तो हमें ऐसे अनेक लोग मिल जाएंगे, जिनके पास सुविधा नाम की कोई चीज नहीं थी, पर उन्होंने वह काम कर दिखाया जो सभी सुविधाओं को होते हुए भी हम नहीं कर पाते हैं। ऐसा ही एक नाम है सिंधुताई सपकाल का।

पूर्वी महाराष्ट्र के नवरगांव के गरीब चरवाहा परिवार में जन्मी 62 वर्षीय सिंधुताई सपकाल ने सिर्फ कक्षा चार तक ही शिक्षा प्राप्त की है। सिंधुताई को प्यार से सभी माई कह कर बुलाते हैं। सिंधुताई से माई तक का यह सफर कांटों भरा था। उस समय की परंम्परा के अनुसार सिंधुताई का विवाह 9 वर्ष की अल्प आयु में 30 वर्ष के युवक के साथ कर दिया गया था। सिंधुताई को पढ़ने का बहुत शौक था। इसलिए जिस पेपर में पति सामान लपेट कर घर लाते, सामान रखने के बाद वह उसे पढ़ने लगती। पति को उनकी यह बात कभी अच्छी नहीं लगती थी, इसलिए अक्सर उन्हें इस अपराध के लिए पति के हाथों पिटाई सहनी पड़ती। सिंधुताई कहती है कि ऐसा इसलिए होता था क्योंकि पति को लगता था कि इस तरह मैं उन्हें नीचा दिखाना चाहती हूं, जबकि ऐसा था नहीं, मैं सिर्फ और सिर्फ पढ़ना चाहती थी बस!

तीन बेटों को जन्म देने के उपरांत चौथी बार जब वे गर्भवती हुई तो पति ने उन्हें छोड़ दिया। इसलिए चौथे बच्चे का जन्म जो बेटी थी एक गौशाला में हुआ। जहां उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं था इसलिए पास पड़े पत्थर से गर्भनाल काटना पड़ा। मां ने जब बेटी के बारे में सुना तो वे उसे और उसकी नवजात बेटी को अपने साथ ले गई। लेकिन उनके पास भी इतने साधन नहीं थे कि वे अपनी बेटी और नवासी का पालन-पोषण कर पातीं। अपनी जीविका चलाने के लिए सिंधुताई सड़कों, रेलवे प्लेटफार्म और गाड़ियों में गाना गाकर भीख मांगती थीं। अपनी परिस्थितियों से तंग आकर उन्होंने दो बार आत्महत्या का भी प्रयास किया। पहली बार असफल रही। दूसरी बार जब वे आत्महत्या करने जा रही थी बेटी की रोने की आवाज ने उनके बढ़ते कदमों को रोक दिया और यही वह पल था जिसने उनकी पूरी सोच को बदल दिया तथा जीने का एक उद्देश्य भी दे दिया। उन्होंने निश्चय किया कि उन्हें न सिर्फ अपनी बेटी ममता के लिए बल्कि उस जैसे अनेक बच्चों के लिए जीना है, जिन्हें समाज अपनाने को तैयार नहीं है।

पिछले तीस सालों में सिंधु ताई 1000 से ज्यादा अनाथ और अनचाहे बच्चों का पालन-पोषण बहुत ही संघर्ष पूर्ण जीवन जीते हुए किया है। इसके लिए उन्होंने वह सब कुछ किया जो वह अपनी बेटी को पालने के लिए करती थी। कई ऐसे मौके भी आए जब अपने बच्चों का पेट पालने के लिए उनके पास पर्याप्त पैसे नहीं होते थे, तब छोटे बच्चों के दूध में पानी मिला देती थी और बड़े बच्चों के खाने में सब्जियों की कटौती होती थी।

सिंधुताई के इतने बड़े परिवार को चलाने के लिए कोई व्यवसायिक प्रबंधन कार्य नहीं करता बल्कि उन्ही के परिवार के तीस बच्चे जिनकी उम्र तीस वर्ष या उससे थोड़ी ज्यादा है इसे चलाने में माई की मदद करते हैं। 

अन्नत महादेवन की फिल्म मी सिंधुताई सपकाल ने अचानक उन्हें पूरी दुनिया में लोकप्रिय बना दिया है। आज वे लोगों की प्रेरणा स्त्रोत बन गई है। देश-विदेश में लोग उन्हें भाषण देने के लिए आमंत्रित कर रहे हैं। उनके भाषण जीवन को प्रेरणा देने वाले गानों से भरे होते हैं। वे कहती है कि भाषण दिए बिना राशन नहीं मिलता। वे अपने हर भाषण में अपने बच्चों के घर और राशन के लिए अनुदान मांगती हैं। 

Sindhutai Sapkal

She has nurtured more than 1000s of orphaned children and transformed them into doctors, engineers, lawyers and well educated people. She has taken on a dreaded mission that most would not dream ,if they were in abject poverty, hungry, beaten & abandoned by her husband when pregnant and absolutely destitute…

She is none other than Sindhutai Sapkal & also known as Mother of Orphans is an Indian social worker and social activist known particularly for her work for raising orphan children. She loves being called ‘Mai’.
Her nickname was ‘Chindi’ meaning ‘torn cloth’ in Marathi. She was named thus as an unwanted child. Her father, Abhiman Sathe was an illiterate cowherd in Pimpri who was keen on educating her, much against his wife's wishes. So every day on the pretext of sending her out to graze the cattle, he would pack her off to the village school. She could only attend school until 4th grade. She was brought up in abject poverty. "There was no money to buy a slate," recalls Sindhu. "I practiced the alphabet on thick, palm-sized leaves of the bharadi tree, using its thorns to write." 

Marriage at the age of 10 put an end to her education. The groom, Shrihari Sapkal, alias Harbaji, was 30. "I was told there are only two processions in a woman's life. Once when she gets married and the other when she dies. Imagine my state of mind when they took me in procession to my husband's home in Navargaon forest in Wardha," says Sindhu tai. In course of time, she bore three sons.

Sindhu tai created a sensation in Navargaon in 1972 when she demanded that the forest department pay the village women for the cow dung they collected. The department used to auction the dung to landlords and pocket the cash. "We won the fight," says Sindhu tai.The taste of success was sweet, but it broke up her family. She claims that an annoyed landlord, Damdaji Asatkar, spread the rumour that the child she was carrying was his. "My husband decided to abandon me," says Sindhu tai. She was beaten up and dumped in a cow shed, where her daughter, Mamata, was born. "It was October 14, 1973," Sindhu tai intones. "I cut the umbilical cord with a sharp-edged stone lying nearby."

She later sought shelter at her parental home, but her mother did not accept her and instead told her to go and die on the railway line. Sindhu tai wandered from town to town, singing and begging near temples. In Faijpur, Jalgaon district, she left Mamata in the care of a temple priest's family while she moved around singing bhajans. "Those were the days of soul-searching. I began feeling I must do something for those suffering like me." she said.

Then one day as she was begging for bhakri(bajra roti) to feed herself and her 2 year old daughter and wandering in the scorching sun for long, she was so exhausted that she almost decided to commit suicide with her 2 yr old tied to her stomach. She was standing under a tree and suddenly its stem caught her attention; she noticed that it was badly axed but it was still giving her shade. She almost screamed ‘No I will not die.’ She hit upon a plan to take care of orphaned less privileged children of Adivasis.

The idea was just taking root when she found herself in Chikhaldara. A section of the Melghat jungles on the border of Maharashtra and Madhya Pradesh had been earmarked for a tiger project. It meant people from 84 villages would have to be evacuated. "I reached there on a very dramatic day," says Sindhu. A project officer impounded 132 cows of the Adivasi villagers of Koha. "For three days he did not free them; one cow died. The Adivasis stood looking at their cows helplessly. That day I decided to take up their cause." Adivasis are primitive tribal groups which live in utter poverty, have low levels of literacy and health and are a result of severe feud since 18th century. 

Sindhu tai fought for the rehabilitation of the 84 villages. In the course of her agitation, she met Chhedilal Gupta, the then minister of forests. He agreed that the villagers ought not to be displaced before the government had made appropriate arrangements at alternative sites. When Prime Minister Indira Gandhi arrived to inaugurate the tiger project, Sindhu tai showed her photographs of an Adivasi who had lost his eyes to a wild bear. "I told her that the forest department paid compensation if a cow or a hen was killed by a wild animal, so why not a human being? She immediately ordered compensation."

Those things made people look at her with admiration.
Soon she realized the plight of orphaned and abandoned Adivasi children. Initially she took care of the children in return for some meager food. Looking after them was a source of livelihood. It didn't take long for it to become the mission of her life. She later donated her biological child to the trust Shrimant Dagdu sheth halwai, Pune, only to eliminate the feeling of partiality between her daughter and the adopted ones. 

Many of the children that she adopted are well educated lawyers and doctors, and some including her biological daughter are running their independent orphanages. One of her child is doing PHD on her life. Till date she is honored by 272 awards. She used all that money to buy land to make home for her orphan children. She has started construction and still looking for more help from the world.

‘Oh God, teach us how to laugh; but let us not forget that we had also cried once upon a time.' 

These words are etched on the wall behind Sindhu tai's chair at the Sanmati Bal Niketan, Hadapsar, Pune.

Beginning with her first ashram at Chikhaldara in Amravati district, Sindhu Tai went on to set up five homes.

A home for destitute women, The Nadarmai Mahila Adhar Kendra, functions out of the same building that houses orphans at Chikhaldara. Her homes survive on donations and grants, and she unabashedly begs in village after village to put whatever they can into a cloth she spreads out on a table after her speech.
Today Sindhu tai proudly states that she has 36 daughters-in-law and 177 sons-in-law. Most of her children are well placed in life. Sham Randive is a lecturer in history at Mhasvad in Satara district. Seema Kokare is an Ayurvedic doctor and settled in Aurangabad. The list goes on. But at 61, Sindhu tai says she still has plenty more to accomplish. "Let me tell you I am not Devaki who gave birth to Lord Krishna, I am just trying to be a perfect Yashoda."

This mother's ability to work is just amazing. She can work tirelessly for 8-10 days at a stretch. There have been times when she has travelled throughout the fortnight, came home for a while and then set out again. She is ever willing to respond to a plea for help from an orphan or a destitute. She refuses to take any rest saying she cannot afford to till every institution she started becomes self-sufficient.

बीबी प्रकाश कौर ,,,,,,,,,,, Bibi Parkash Kaur



बीबी प्रकाश कौर - Bibi Parkash Kaur


कन्या भ्रूण हत्या के लिए हमेशा सुर्खियों में रहने वाले पंजाब में प्रकाश कौर 60 परित्यक्ता लड़कियों के लिए एक माँ सामान है। वह उन्हें एक जीवन देने के लिए उत्सुक रहती है ; जिनके लिए उनके अपने माता पिता उनकी मौत की कामना करते है |


उन अवांछित लावारिस या अनाथ बच्चियाँ जो सड़क के किनारे , बहते पानी में , कचरे के ढेर में या पालना घर के बाहर आधी रात के दौरान छोड़ दी जाती है जिनकि जिम्मेदारी निभाने से समाज बचता रहता है | 



ऐसी बच्चियों को जीवन देने का बाद उनको समाज में पुनर्स्थापित करना भी एक बहुत ही मुश्किल और चुनौती पूर्ण भरा काम है | जिसके लिए एक बड़े पैमाने पर, सामाजिक प्रयास की आवश्यकता है। इस काम का बीड़ा कुछ लोग ही उठा पाते उनमे एक नाम हैं बीबी प्रकश कौर , जो खुद अनाथ होने का दंश झेल चुकी हैं। वह जालंधर के ही एक होम में पली थी। इसके बाद उन्होंने फैसला किया कि वह खुद भी अनाथ लड़कियों के लिए ‘ यूनिक होम ‘ बनाएंगी। 



सादे सफ़ेद सलवार कमीज और एक साधाहरण सी चप्पल पहने बीबी प्रकाश कौर इन बच्चियों की सेवा के लिए हरदम तैयार रहती हैं | उन्होंने खुद अविवाहित रहते हुए अपना पूरा जीवन इन बच्चियों के लिए ही समर्पित कर दिया हैं | शुरुआत में यूनिक होम चेरिटेबल ट्रस्ट के ट्रस्टी के मॉडल हाऊस स्थित एक कमरे में चलाती थी, जिसके बाद लोगों की सहायता मिली और इसे छोटे से होम के साथ जिसे बाद में फंड मिलने पर नकोदर रोड पर भी यूनिक होम बना दिया। अब इसमें 58 लड़कियों को पनाह दे रखी है, जिन्हें बेदर्द मां बाप ने सड़कों पर मरने के लिए फैंक दिया था। यहीं की बच्ची ममता के नाम पर कनाडा में ममता होम चलाया जा रहा है। आज सब बच्चिय उन्हें ‘माँ ‘ कह कर बुलाती हैं क्योकि इस संस्था के पीछे मुख्य आत्मा बीबी प्रकाश कौर ही है जिनकी ममता की छावं के नीचे यह बच्चिया पलती हैं |



इन बच्चियों की यहाँ सभी बुनियादी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति की जाती हैं और उस के साथ-साथ एक प्यार भरा वातावरण दिया जाता है और उनको उचित शिक्षा भी प्रदान की जाती है और यह शिक्षा उन्हें उन्ही विधालयो में दिलवाई जाती हैं जिसमे समाज के बाकि बच्चे पढते हैं | हर नए बच्चे के आगमन पर इस यूनिक घर में जश्न का माहोल होता हैं ठीक उसी तरह जैसे किसी भी परिवार में परिवार के नए सदस्य के आगमन पर होता हैं | लड़कियों को एक धर्म के नाम की जगह हर धर्म के नाम दिए जाते हैं जैसे उन्हें सिख, हिंदू, मुस्लिम और ईसाई जिस से कि उनको धर्म के बारे में भी जानकारी रहे । एक वर्ष में एक बार, अप्रैल 24 पर वे सब अपने जन्मदिन मनाते हैं। इन लड़कियों की गोद देने की अनुमति नहीं है। कई लड़कियों के उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए कॉलेज भी जाती हैं और कुछ शादी कर अपने हर चली जाती हैं । बीवी प्रकाश कौर यह हमेशा ध्यान रखती हैं कि उनकी बच्चिया जहा भी रहे अच्छी तरह से रहे हैं | उन्हें यहाँ इतना अच्छा माहोल मिलता है कि उनमे से कुछ लड़किया समाज में पूरी तरह स्थापित होने के बाद भी यहाँ वापिस आकर उन बच्चियों के लिए काम भी करती हैं जो अब उस घर में नई-२ आई हैं | 



प्रकाश कौर, जो आज बहुत सरे बच्चो की नानी भी हैं...गर्व से कहती है कि – आज यह मेरा मानना है कि यह केवल माता ही है जो अपने बच्चो को मानवता और प्रेम का पाठ पढ़ा कर इस समाज को बचा सकती हैं. वो आगे कहती हैं जरूरी नहीं कि "हम कुछ गंभीर और अलग सीखे इस समाज को चलाने के लिए , सिर्फ प्यार सबको कैसे सामान रूप से मिले इसको जानने की जरूरत हैं| आज अगर उनसे कोई उनकी इस सेवा के बारे में पूछता हैं तो वो कहती हैं कि मै तो एक आम इंसान हूँ और सरलता से आगे कहती हैं ऊपर वाला जो मेरे से करवा रहा हैं उसका आदेश मान कर मै कर रही हूँ .|





Bibi Parkash Kaur, 

The founder and the spirit of Unique Home, the “mamma” of 60 girls, whom she refuses to call ‘adopted’. For her, they are the lord’s blessings. Dressed in a worn-off white salwar kameez, with simplest chappals in foot, she manages to avoid answering questions on her noble deeds and refuses any credit, each time. “It’s never me. It’s only my almighty who takes care of his own children through me. It may seem to a man that he alone is the doer, but the Power which makes him work is the ultimate. Man has nothing in his hand”, remarks the lady in white, who didn’t marry to provide life to the girls, considered dead by their parents.



Bhai Ghanayya Ji Charitable Trust was established on May 17th 1993 and runs Unique Home with an aim “Moral, Social, Cultural and Economic uplift of orphan children without any distinction of Caste, Creed and Religion”. 



The home is run by Bibi Prakash Kaur Ji who works selflessly to provide these young girls with a warm and loving environment in addition to basic daily necessities and a proper education.



Abandoned girls are typically left in a hatch that is attached to the home. Upon the arrival of every new child, the entire house rejoices at the addition of a family member. Girls are given Sikh, Hindu, Muslim and Christian names, faith has no restrictions at Unique Home. Once a year, on April 24th they all celebrate their birthday. Bibi Prakash does not allow adoption of these girls for the fear that they will be solicited or abused. 



The main spirit behind this institution is Bibi Prakaash Kaur, whose aim is to rehabilitate those people whom society has disowned. 

Many of the girls go on to attend college and get married. Bibi Prakash Kaur continues to be involved in their lives to ensure that they are treated well. Some of the women return to provide care for the next generation of girls at Unique home. 



The lady has contributed immensely to the society. She also received 'heroes of India, 2011' an award by CNN-IBN, besides many national level recognitions for her noble deed of founding and managing a Unique Home for girls in Jalandhar.



In Punjab, there are those who don’t let the girl child take birth, some, who throw or dump her out once she is born, and then there are many those who though bring her up, but only to give her a life, devoid of her rights and freedom. Girls are surely getting good education today, but according to Bibi, it’s worthless if they are still made to feel to be of inferior gender in the family environment. Even when many of them have proven themselves in different fields, it has not influenced the tendency of Punjabis to long for sons. She calls upon the people of Punjab to actually follow the teachings of the Gurus and stop discriminating.

“They are disturbing the nature’s balance by killing daughters. Man has acquired animal flair due to this. Child abuses, rapes, harassment all are consequences of depleting ethical character. The only way things can be made better is by strengthening moralities, right from the young age, through school and college education”. She firmly supports the need for a compulsory subject of moral values, with quality teachings of verses from scriptures of all religions. This would ensure an enlightened generation. 



She even pleads media and TV industry to spread patriotism and value based entertainment for budding minds.



A proud nani of grandchildren of some of her married daughters, Parkash Kaur, believes it is only the mothers who can save the society, by nurturing their children with ‘love of humanity’—the words she fondly propagates. “We need not learn anything grave and different, just, how to love humanity, equally.”



A social worker, dutiful soul, innocently modest, whatever was said to define her, seemed a bit small in front of her divine persona. Aged but face afresh with zeal. Commonest attire but thoughts ahead of times. Tough but epitome of compassion and love, here was a woman who showed the world what a woman could do for women – creating a better world.