Saturday, August 20, 2011

Professor Indira Nath .....प्रो. इंदिरा नाथ





Professor Indira Nath born 14-01-1938
FRC Path., FAMS, FNA, FNASc, D.Sc. (h.c.)
Head of the Department of Biotechnology at AIIMS , new delhi
world renowned authority on leprosy
Padma Shri (1999)
L'Oreal-UNESCO 2002 award for ``Women in Science -- Asia/Pacific Region''.

प्रो. इंदिरा नाथ, जन्म 14-01-1938
FRC Path., FAMS, FNA, FNASc, D.Sc. (h.c.)
विभाग प्रमुख, जैव प्रौद्योगिकी, एम्स, नई दिल्ली
कुष्ठ रोग विशेषज्ञ
पदमश्री 1999
L'Oréal यूनेस्को –माहिला वैज्ञानिक 2002 पुरस्कार की विजेता

She is among the few who inspire you to look at the broader picture and go beyond narrow selfish interests. Recipient of Padma Shri (1999) for her contribution to the field of immunology, Professor (Ms) Indira Nath is someone who would easily fit the term ``class apart''.
Prof. Nath is more than just a world renowned authority on leprosy, whose research spanning the fundamental aspects of human immune response has aided creation of tools for diagnostics, immunotherapy and antigens for clinical investigation.
She is also a content grandmother, an ardent bonsai lover and compulsive swimmer who ``has to try really hard not to jump into the pool everytime I see one''.
The eldest daughter of a CPWD engineer, Prof. Nath's discovery constitutes a significant step towards the development of treatment and vaccines for leprosy. At present, this 60-year-old is Head of the Department of Biotechnology at All India Institute of Medical Sciences and Research Professor at the S.N. Bose Centre.
Having placed India on the world map with her path breaking research, Prof. Nath has now given the people another reason to cheer. This past Thursday, she became the first Indian to be awarded the L'Oreal-UNESCO 2002 award for ``Women in Science -- Asia/Pacific Region''. She was chosen from among 100 candidates recommended by over 800 internationally renowned scientists.
But her winning came as a surprise to few. ``Unlike most people, I have never had a dilemma about what to do in life. When I was ten, I decided that I wanted to become a doctor, by second year medical college, I was sure I wanted to specialize in pathology, and later I was clear I wanted to do research,'' she says.
The clear thought process continued even when she decided to get married to a classmate. ``My parents were aghast. He was a North Indian. But all the resistance aside we got married right after our internship and then decided to go abroad. But both of us were clear we wanted to return to India,'' says Prof. Nath.
“And we had reasons for wanting to come back. Both of us had studied in an environment where we were encouraged to look beyond studying from western books. We were attuned to asking question, to look for reasons and were aware that we had a social responsibility.''
Later when she returned to India in the early 1980s, immunology was still in its infancy and Prof. Nath got actively involved in developing an immunology workshop at AIIMS under the aegis of World Health Organisation and the Indian Council of Medical Research for the South-East Region.
She also went on to develop the first department in India at AIIMS in 1986 with a view to train biomedical personnel in immunology, molecular biology and modern biology aspect. But Prof. Nath had to pay a heavy price for walking the untread path. ``I became the longest serving professor at AIIMS, routine promotions never seemed to reach me. It wasn't like anyone was trying to pull me down or something, the administrative system was such,'' she says.
She later found the same apathy in the government health policies. ``The Indian government hasn't made use of the research work being done in-house, we rather have western expertise,'' she rues. But what worries Prof. Nath is the state of research in the country today. ``We are just moving from epidemic to epidemic. Doctors today are not keen to do research work, they are rusting their learning skills.''

प्रो. इंदिरा नाथ
L'Oréal यूनेस्को 2002 पुरस्कार की विजेता,इंदिरा नाथ भारत की अग्रणी महिला वैज्ञानिक और कुष्ठ रोग की एक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जानीमानी विशेषज्ञ है. लेप्रा- ब्लू हैदराबाद में पीटर रिसर्च सेंटर के निदेशक के रूप में उन्होंने कुष्ठ रोग के खिलाफ भारत की तरफ से लड़ाई लड़ते हुए अहम भूमिका निभाई हैं . 1970 के दशक में अपने जब प्रो. इंदिरा नाथ ने अपने कैरियर की शुरुआत की तब भारत में कुष्ठ रोगियों की संख्या विश्व में सबसे अधिक थी. यह आंकड़ा तब 45 लाख था उनकी मेहनत , लग्न से यह आंकड़ा गिर कर 10 लाख रह गया .उनके अनुसार जो भी लोग कुष्ठ रोग के संपर्क में आते उनमे से हर एक को एक ही जैसी कुष्ठ बीमारी विकसित नहीं होती इसके अलग-२ रूप होते है . इनमे से lepromatous कुष्ठ रोग सबसे गंभीर है और यह रोगी की प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया प्रणाली में एक खास कमी के कारन विकसित होता है उन्होंने इस पर खोज की और इस कमी की पहचान की जिस से इस खोज के उपचार और टीके के विकास को एक नयी दिशा मिली है

जब वह 1980 के दशक में भारत लौटी, तब इम्यूनोलॉजी(प्रतिरक्षा परिक्रिया ) अभी भी अपनी प्रारंभिक अवस्था में थी उस वक्त प्रो नाथ ने एम्स में विश्व स्वास्थ्य संगठन के तत्वावधान सक्रिय होकर भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के तहत एक इम्मुनोलोजी कार्यशाला विकसित की
इसके साथ ही उन्होंने भारत के एम्स में 1986 में पहली बार इम्यूनोलॉजी, आण्विक जीव विज्ञान और आधुनिक जीव विज्ञान पहलू में जैव चिकित्सा कर्मियों को प्रशिक्षित करने की दृष्टि के साथ विभाग को विकसित किया . लेकिन प्रो नाथ एक नए पथ पर चलने के लिए भारी कीमत चुकानी पड़ी उनके अनुसार . वो एम्स में सबसे लंबे समय तक प्रोफेसर ही बन कर रह गयी , नियमित पदोन्नति भी उन्हें नहीं दी गयी यह एम्स की प्रशासनिक व्यवस्था का नतीजा था जिनकी नजरो में नए क्षेत्र में काम करना महत्त्व नहीं रखता था.यह एक तरह से भारत सरकार की स्वास्थ्य नीतियों के प्रति उदासीनता का नतीजा भी था जिसके तहत `भारत सरकार भारत में ही किये अनुसंधान  के काम पर विश्वास नहीं करते  हुए पश्चिमी विशेषज्ञों पर निर्भर रहने और विश्वास करने में ही समझदारी समझती  है. लेकिन प्रो नाथ ने इन सब की परवाह किये बिना अपना काम करती रही जिसकी बदौलत देश में आज कुछ तो अनुसंधान हुआ हैं.पर सरकार की उदासीनता से वो अब भी खिन्न हैं कि देश में अब भी कोई अनुसंधानकर्ता अपना काम नहीं करना चाहता वो अपने कौशल को पश्चिमी देशो में ही दिखाने को मजबूर हैं.जहा उन्हें इज्जत की दृष्टि से देखा जाता है और उनके काम पर विश्वास किया जाता है .


Thursday, August 11, 2011

Dr Renu Khator ........डा रेणु खाटोर




Dr Renu Khator (Born: 29-Jun-1955-Farrukhabad, Uttar Pradesh (India))
2007 : honored with the prestigious Hind Rattan (Jewel of India) award
Her life philosophy,
"When life gives you lemons and everyone else is busy making lemonade, think about making margaritas!"
 Ensure that student success is our fundamental mission
Place the student at the center of every decision


डा रेणु खाटोर- (जन्म सन १९५५उत्तर प्रदेश राज्य , फर्रूखाबाद)
सन २००७ : भारत सरकार के तरफ् से हिन्द रत्न का सम्मान


साल २००७ में ह्यूस्टन विश्वविद्यालय  के बोर्ड ऑफ रीजेन्ट्स ने एक ऐतिहासिक फैसला लेते हुए अमरीका के श्रेष्ठतम 200 शिक्षाविदों में से आधिकारिक तौर पर भारतीय मूल की रेणु खाटोर को अपना कुलपति, अध्यक्ष और मुख्य कार्यकारी (सीइओ) चुन लिया। वे इस विश्वविद्यालय की आठवीं कुलाधिपति और 13 वीं अध्यक्ष होंगी। वे पहली भारतीय महिला हैं जो किसी विश्वविद्यालय में इतने ऊंचे और प्रतिष्ठित पद के लिए चुनी गई है। इस खबर के आऩे के बाद से ही खाटोर अमेरीकी मीडिया में छाई हुई हैं।


उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद से अमेरिका के फ्लोरिडा तक और कानपुर से ह्यूस्टन तक की उनकी यात्रा यहाँ के मीडिया में सुर्खियों में है। उनकी इस शानदार उपलब्धि से अमरीका में रह रहा भारतीय समाज और विश्वविद्यालयों में पढ़ रहे भारतीय छात्रों की खुशी का कोई ठिकाना नहीं है। यह भी गौरतलब है कि विगत कई वर्षों से यूनिवर्सिटी ऑफ मिसीसिपी, टेंपल यूनवर्सिटी और यूनिवर्सिटी ऑफ नेवेडा से उन्हें सर्वोच्च पद दिए जाने का प्रस्ताव लगातार मिल रहा था।


उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद में एक वकील पिता के यहाँ जन्मी रेणु जब 18 साल की थी तो उनके पिता ने उनसे कहा कि 10 दिन में उनकी शादी होने वाली है। यह सुनकर रेणु को लगा कि उसके पैरों तले धरती खिसक गई है, रेणु ने घर वालों के खिलाफ मौन विद्रोह सा कर दिया और अपने आपको एक कमरे में कैद कर लिया। रेणु को लगा कि उसका पढाई करने का जो सपना है वह शादी के बाद चूरचूर हो जायगा। कानपुर विश्वविद्यालय से बीए करने के बाद उनकी शादी हो गई और शादी के बाद वर्ष 1974 में वे अमरीका आ गई। तब उनके पति सुरेश खाटोर प्यूरड्यू विश्वविद्यालय में इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे थे। उनके पति ने उनकी आगे पढ़ने की इच्छा का सम्मान करते हुए उनको एक स्थानीय कॉलेज में दाखिला दिलाया। तब उनकी अंग्रेजी की समझ काफी कमजोर थी, वह अंग्रेजी बोल नहीं पाती थीं। आप इस  बात से अंदाजा लगा सकते हैं कि कॉलेज में प्रवेश के दौरान डीन के साथ जब उनका इंटरव्यू हो रहा था, तब उनके पति सुरेश खाटोर दोनों के लिए अनुवादक की भूमिका निभा रहे थे। इसके बाद रेणु खाटोर ने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। उन्होंने कड़ी मेहनत की और भाषा पर पकड़ बनाने में कामयाब रहीं।


रेणु ने वहाँ रहकर राजनीति विज्ञान में अपनी मास्टर की डिग्री हासिल की। इसके बाद दोनों पति-पत्नी वापस भारत लौट आए। 1983 में उनके पति सुरेश को दक्षिणी फ्लोरिडा विश्वविद्यालय से पढ़ाने का प्रस्ताव मिला और खाटोर दंपति फ्लोरिडा चले आए। रेणु का चयन भी विश्वविद्यालय में अस्थायी तौर पर हो गया। दो दशकों में वह अपनी प्रतिभा और लगन से विश्वविद्यालय  की टॉप फैकल्टी में पहुँच गईं। उनकी इस कामयाबी ने ह्यूस्टन विश्वविद्यालय का ध्यान अपनी ओर खींचा।  उनकी सफलता ने इस कहावत को भी बदल दिया है कि हर सफल आदमी के पीछे एक औरत का हाथ होता है, उनके पति सुरेश खाटोर ने जिस तरह से पग-पग पर रेणुजी का उत्साह बढ़ाया और आगे बढ़ने में मदद की उससे यह कह जा सकता है कि किसी सफल औरत के पीछे भी एक आदमी का हाथ होता है।


ह्यूस्टन क्रॉनिकल ने लिखा है कि 13वें विश्वविद्यालय प्रेसिडेंट समारोह में खाटोर बिना नोट्स के ही बोलीं और अपनी सरल, शिष्ट और संस्कारित भाषा से मौजूद लोगों पर जादू सा कर दिया। समारोह में मौजूद उनके पति सुरेश खाटोर ने कहा कि अब उनको अपनी पत्नी के अधीन रहकर काम करना होगा, वे उनके जूनियर हो गए हैं, लेकिन यह उनके लिए गौरव की बात है। जब हमने इंटरनेट पर जाकर सुश्री खटोर के बारे में विस्तार से जानने की कोशिश की तो यह देखकर चौंक गए कि उनका अधिकृत बॉयोडेटा 23 पृष्ठों का है जिसमें साल दर साल उनके खाते में एक से एक शानदार शैक्षणिक और सामाजिक उपलब्धियाँ तो दर्ज है ही अपने हिन्दी लेखन के लिए भी पुरस्कृत हो चुकी हैं। 1985 से लेकर 2007 तक में उन्होंने कई शोध पत्र और पुस्तकें लिखी हैं। कई विषयों पर व्याख्यान दिए हैं।


लेकिन खाटोर का आगे का रास्ता आसान नहीं है। अमरीका के तीसरे सबसे बड़े और प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में से एक ह्यूस्टन में तकरीबन 3 हजार फैकल्टी और 56 हजार से अधिक छात्र हैं।  इतने बड़े विश्वविद्यालय का कामकाज संभालना खुद में एक बड़ी बात है। खाटोर को अब अधिक से अधिक फंड जुटाना होगा और दान देने वाले लोगों को अधिक से अधिक चंदा देने के लिए प्रेरित करना होगा। (यहाँ यह बता देना जरुरी है कि अमरीका के विश्वविद्यालय सरकारी पैसे से नहीं बल्कि बड़ी बड़ी कंपनियों और वहाँ से पढ़ कर जा चुके उन विद्यार्थियों के चंदे से चलते हैं जो अपनी कामयाबी के बाद आर्थिक रूप से अपनी तरह से मदद करते हैं)  यही नहीं, अच्छी से अच्छी फैकल्टी को भी विश्वविद्यालय  से जोड़ने का काम उन्हें करना होगा। इन दोनों जिम्मेदारियों को कामयाबी के साथ अंजाम देने के लिए उन्हें प्रवासी भारतीयों का सहयोग लेना होगा। हालांकि खाटोर को इसका काफी तजुर्बा है। खाटोर जब प्रोवोस्ट के पद पर  थीं, तब उनके प्रयासों से इस विश्वविद्यालय को डॉ. किरण पटेल और उनकी पत्नी पल्लवी ने 18.5 मिलियन डॉलर का दान दिया था। टेक्सास में उतने ही अमीर भारतीय मूल के अमेरिकी रहते हैं, जितने कि फ्लोरिडा में और वे ऐसी स्थिति में पहुँच गए हैं, जहाँ पर शिक्षा, प्रतिष्ठा और गर्व का विषय बन गया है।


आज जब भारतीय मूल के अमेरिकी स्पेस शटल से अंतरिक्ष में जा रहे हैं, कांग्रेस व गवर्नर पद के लिए चुनाव लड़ रहे हैं और वित्तीय संस्थानों के अध्यक्ष बन रहे हैं। ऐसे समय में एक ठेठ प्रवासी भारतीय का किसी अमेरिकी विश्वविद्यालय का कुलपति बनना और अमेरिकी विश्वविद्यालय का अध्यक्ष चुना जाना काफी महत्वपूर्ण है। यही नहीं, अमेरिका के शिक्षण जगत में में किसी प्रवासी भारतीय का महत्वपूर्ण पद पाना वहाँ  के भारतीय समुदाय और विश्वविद्यालय  दोनों के लिए प्रतिष्ठा का विषय है।


Renu Khator: born June 29, 1955) is the eighth chancellor of the University of Houston System and the thirteenth president of the University of Houston. She is the first foreign-born president of the university, and the second woman to hold the position.Khator is also the first Indian American to lead a major research university in the United States, and is the second Indian American to lead an accredited university in the United States.
Prior to moving to the United States, Khator earned a bachelor's degree from the Kanpur University in 1973. Moving soon thereafter, she attended Purdue University, and received Master of Arts in political science and a Doctor of philosophy (Ph.D.) in political science and public administration in 1975 and 1985, respectively.
Beginning in 1985, Khator began a 22-year career affiliation with the University of South Florida. She served in various positions, culminating in her position as provost and senior vice president of the university.
On October 15, 2007, Khator emerged as the sole-finalist for the vacant dual-position as chancellor of the University of Houston System and president of the University of Houston. On November 5, 2007, she was confirmed by the University of Houston System Board of Regents for the dual-position. Renu Khator officially took her position on January 15, 2008 and became the third person to hold a dual position of University of Houston System chancellor and University of Houston president.
Khator was born in Farrukhabad, Uttar Pradesh (India). Through a traditional arranged marriage, she married her husband, Suresh, in 1974. Suresh—another Purdue graduate—holds a doctorate in engineering, and is a professor and associate dean of the University of Houston's Cullen College of Engineering. The Khators have two daughters, Pooja and Parul, who are both ophthalmologists. As chancellor of UH System and president of the University of Houston, she takes residence in the Wortham House provided for her and the family in the Southampton neighborhood of Houston..


Khator  recently joined some of the world’s most respected leaders when she was named to the Indian Prime Minister’s Global Advisory Council.  She serves on many boards, including the Federal Reserve Bank of Dallas, the Greater Houston Partnership, the Houston Technology Center, the Texas Medical Center Policy Council, the Methodist Hospital Research Institute Board, and the Business Higher Education Forum.  She is featured in the American Council on Education's video "The Joys of the Presidency."


The Khators have two daughters, both of whom are ophthalmologists.





Saturday, August 6, 2011

Patricia Narayan...........पेट्रीसिया नारायण



Patricia Narayan
winner of this year's 'Ficci Woman Entrepreneur of the Year'

पेट्रीसिया नारायण
फिक्की के वर्ष की महिला उद्यमी के पुरूस्कार की विजेता

पेट्रीसिया नारायण ने अपना व्यवसाय एक असफल शादी के बावजूद , एक नशे के आदि पति से झुझते हुए अपने दो बच्चो कि परवरिश करते हुए मरीना समुंदर तट पर एक ठेला गाड़ी पर खाने की चीज बेच कर शुरू किया था .सब मुश्किलों से पार पाते हुए आज उसकी अपनी एक रेस्त्रां की अपनी चेन हैं .
खाना बनाना उसे हमेशा अच्छा लगता था और उसे हमेशा ही आकर्षित करता था पर एक दिन उसका यह शौक ही उसका व्यवसाय भी बन जायेगा यह उसने कभी सोचा भी नहीं था क्योकि वो व्यवसायी परिवार से संबंध नहीं रखती थी उसने तो शादी के बाद घर बसाने का सोचा था पर उसकी शादी ने उसका पूरा का पूरा जीवन बदल दिया.

पेट्रीसिया खुद कहती है कि....मैंने सिर्फ दो लोगों के साथ अपना कारोबार शुरू किया था .अब वहाँ 200 लोग मेरे रेस्तरां में मेरे लिए काम कर रहे हैं. मेरा जीवन शैली भी बदल गयी है. एक साइकिल रिक्शा में यात्रा शुरू करके , मैं ऑटो रिक्शा पर आई और अब मेरे पास अपनी कार है. मेरी कमाई 50 पैसे एक दिन, बढकर आज 2 लाख रुपये प्रति दिन है.

फिक्की ने मुझ इस वर्ष की उद्यमी 'का पुरूस्कार दिया हैं जोकि मेरी ३० वर्षों की कड़ी मेहनत की परिणति है. यह मेरे लिए एक आश्चर्य के रूप में आया है क्योकि पहली बार मुझे कोई पुरस्कार प्राप्त हुआ है.

अभी तक मेरे पास समय ही नहीं था अपने लिय और यह जानने के लिए भी में क्या कर रही हूँ.कुछ सही भी कर रही हूँ या नहीं पर इस उरुस्कार ने मुझे मेरा लक्ष्य दे दिया हैं. अब एरी मंजिल अपने संदीफा ब्रांड को मज़बूत करने की हैं...

FICCI Woman Entrepreneur of the year, Patricia Narayan's tale may sound like the quintessential rags- to- riches story, but it is also a stark tale of survival. An entrepreneur by accident, director of Sandeepha Chain of Restaurants, Patricia belongs to the ilk of those who bloom in adversity.

“Till the FICCI award was announced, I never realised what I had achieved. It was an opportunity to look back.” says Ms. Patricia unassumingly, attributing her success to ‘lady luck'.Hailing from a conservative Christian family from Nagercoil, her marriage to a Brahmin caused an uproar in her family. Soon, all went downhill for Patricia who suffered abuse at the hands of her drug addict husband. At 18, Patricia was left to fend for herself and her two children.

“I reached the crossroads where I had to choose between living and dying. I chose to live.” Keeping her two children in mind, Patricia decided to fight her own battle. “My entire life has been driven by my determination to be independent.” Her passion for cooking only fuelled her will to survive. She started out by selling pickles, jams and squashes. From then on, there was no looking back and she set up a kiosk at the Marina beach, selling juice and cutlets. Her first- day sales would not count as memorable- she sold one cup of coffee for 50 paise- undeterred, she was back at the Marina next day.“I had no time to sympathise with myself. Soon, my hands were full and I was running all the time.”

Ms. Patricia's road to becoming a restaurateur was no overnight miracle but a journey spanning 30 years. She took up catering contracts in the cafeterias of the Slum Clearance Board, Bank of Madura and the National Institute of Port Management after which she forged a partnership with one of the restaurants of a leading hotel chain in Chennai.

Patricia's progress was halted briefly when tragedy struck in the form of her newly married daughter's death. A bereaved Patricia left her business to her son Praveen. After two years, the resilient woman came back and set up her first restaurant named after her daughter Sandheepa.

“Everybody should have a motto in life to succeed. At that time, mine was to stand by my son.”According to her, the hallmark of the restaurant is the home-made quality of the food. She advises entrepreneurs in the food sector never to compromise on quality or hygiene.

Ms. Patricia also operates an ambulance service from Acharapakkam, the spot of her daughter's accident to Chengalpet. “I shall never forget the sight of my daughter's corpse which arrived in the boot of a car, as the ambulance had refused to take her.” Willpower is the most important attribute to succeed, claims the entrepreneur. “When she sets her mind to something, she always achieves it,” her son Praveen asserts. Not a complacent entrepreneur, she sets targets for herself . Her next goal? “To operate a cruise liner,” a wish that was triggered off at an event in Tiruchi. Going by her record, this should be a cruise as well.

Ficci entrepreneur of the year award
I started my business with just two people. Now, there are 200 people working for me in my restaurants. My lifestyle has changed too. From travelling in a cycle rickshaw, I moved to auto rickshaws and now I have my own car. From 50 paise a day, my revenue has gone up to Rs 2 lakh a day.

The 'Ficci entrepreneur of the year' award is the culmination of all the hard work I have put in over the last 30 years. It came as a surprise as this is the first time I have received an award.

Till now, I had no time to think of what I was doing. But the award made me look back and relive the days that passed by. Now, my ambition is to build my Sandeepha brand.

Advice to young entrepreneurs

Do not ever compromise on quality. Never lose your self-confidence. Believe in yourself and the product you are making. Third, always stick to what you know. When you employ people, you should know what you ask them to do
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Nileema Mishra .............नीलिमा मिश्रा



Nileema Mishra
social worker.....commited for the upliftment of poor rural villagers.........winner of Magsaysay award this year (2011)

नीलिमा मिश्रा
सामाजिक कार्यो व सामाजिक उत्थान के लिए प्रतिबध्द......इस साल के (2011 ) रैमन मैगसायसाय पुरस्कार से सम्मानित

नीलिमा मिश्रा को महाराष्ट्र के गांवों में बेहद कठिन हालात में गुजारा कर रहे लोगों के उत्थान के लिए अथक कोशिश करने का श्रेय जाता है। सामाजिक कार्यो व सामाजिक उत्थान के लिए प्रतिबध्दता के चलते नीलिमा की कीर्ति जलगांव, धुलिया, नाशिक, नंदूरबार तक फैल गई है। जलगाँव जिले के परोला के बहादरपुर में एक स्वमसेवी संगठन के माध्यम से, महिला बचत गुटों के निर्माण, अग्निहोत्र चिकित्सा शैली व अन्य कार्यों से विश्व पटल पर अपना और अपने संगठन का नाम रोशन करने वाली नीलिमा मिश्रा को मेगसेसे पुरस्कारसे सम्मानित किया गया है
यह पुरस्कार सामाजिक कार्यो, विभिन्न प्रकार के उत्थानों, समाज की दिशा निर्धारण करने व प्रेरक कार्यो के लिए दिया जाता है।
उनके कार्य से प्रभावित होकर नागरिक उन्हें दीदी के नाम से पहचानने लगे हैं। नीलिमा ने महिला रोजगार उत्थान एवं स्वावलंबन के लिए महिला बचत गुटों की स्थापना की। वह अब तक 1800 बचत गुट स्थापित कर चुकी हैं। जिनमें महिलाओं द्वारा स्वयं अर्जित आमदनी के रूप में पैसा एकत्रित किया जाता है। इस तरह जमा हुए एक करोड़ रुपए को नीलिमा ने नियोजित तरीके अर्थात माइक्रो फाइनेंस के रूप में इन्हीं के बीच कर्ज के रूप में वितरित कर 27 ग्रामों में छोटे उद्यम व खेती कार्यो में लगाया है।
नीलिमा का रुझान शुरू से ही सामाजिक कार्योँ में अधिक था। जिसके लिए उन्होंने प्राध्यापक की नौकरी करने की बजाए इस क्षेत्र को चुना। इन सब के लिए उन्हें पुणे में स्वयंसेवी डा. कलबाग व यदुनाथ थत्ते से प्रेरणा मिली।

मैग्सेसे पुरस्कार की घोषणा होने के बाद नीलिमा ने बताया कि अपनी सफलता का श्रेय संगठन के सदस्यों के सहयोग को दिया। नीलिमा ने कहा कि इस पुरस्कार के बाद उनकी जिम्मेदारी बढ़ गई है। अब वह चंद्रपुर व अकोला जिलों में महिला बचत गुटों के माध्यम से महिला सशक्तिकरण का कार्य फैलाना चाहती हैं। इसके अलावा धुलिया जिले में दूध उत्पादकों को न्याय दिलाए जाने के लिए एक डेयरी स्थापना की भी कल्पना संजोई हुई है। नीलिमा ने ग्रामीण विज्ञान निकेतन के माध्यम से रजाई सिलने का कार्य बड़े पैमाने पर प्रारंभ किया है।
यह रजाई विदेशों में निर्यात की जाती हैं। अपनी मां से प्रेरणा लेते हुए नीलिमा द्वारा प्रतिदिन पचास बेसहारा बुजुर्गो को भोजन कराया जाता है।
रैमन मैगसायसाय पुरस्कार
एशिया का नोबेल' कहे जाने वाले रैमन मैगसायसाय पुरस्कार सामाजिक कार्यो, विभिन्न प्रकार के उत्थानों, समाज की दिशा निर्धारण करने व प्रेरक कार्यो के लिए दिया जाता है। इस पुरस्कार को 31 अगस्त को मनीला में (प्रमाणपत्र, पदक और नगद राशि )प्रदान किया जाता है । यह पुरस्कार फिलीपीन के पूर्व राष्ट्रपति रैमन मैगसायसाय के नाम से दिया जाता है। उनकी 1957 में एक विमान हादसे में मौत हो गई थी।उल्लेखनीय है कि अब तक रमन मैगसायसाय पुरस्कार से आचार्य विनोबा भावे, जयप्रकाश नारायण, मदर टेरेसा, अरुण शौरी, टीएन शेषन और किरन बेदी को नवाजा जा चुका है।

Nileema Mishra
social worker.....commited for the upliftment of poor rural villagers.........winner of Magsaysay award this year (2011)

Nileema Mishra (39 yrs) , resident of Bahardarpur in Jalgaon, 375 km from Mumbai, was presented the Magsaysay award for her tireless contribution to rural work on Wednesday this year . Nileema was born to a middle-class family in the village of Bahadarpur, Maharashtra. With a master's degree in clinical psychology, she could have gone on to a comfortable life as an urban professional. But even as a child Nileema was sensitive to the crippling poverty in her village. When she was only thirteen, she told friends that she had made up her mind she would not marry, so she could devote her whole life to helping the poor. This was not merely a young girl's romantic fancy, as subsequent events would show. Mishra, popularly known as Didi, has been working in Parola tehsil since 2000.
Five years after finishing her studies in 1995, Nileema returned to her village to organize Bhagini Nivedita Gramin Vigyan Niketan (BNGVN), or Sister Nivedita Rural Science Center, named after an Anglo-Irish missionary who devoted her life to helping Indian women of all castes. BNGVN did not begin with a development model in mind, except the conviction that the community's problems must be addressed from within the village itself. Inspired by Gandhi's vision of a self-sufficient, prosperous village, Nileema decided that her group would not work out of the priorities of donors, or compete for government projects.. People would identify their own problems and find the solutions. In her determined manner, Nileema repeatedly told village women who confided their problems to her:
"Don't despair, we shall find a way."
And they did find the ways. Starting with a self-help group of only fourteen women, other self-help groups followed, engaging in microcredit and such income-generating activities as the production of food products and distinctive exportquality quilts. BNGVN enabled these changes by training women in production, marketing, accounting, and computer literacy. Inspired by Nileema, the women went on to build a warehouse so they could procure supplies in bulk at better prices, and formed an association that now has outlets for its products in four districts of the state. Traditionally confined to the home, these village women have become productive, articulate, and confident in their ability to think for themselves.
But the men in the villages, too, have their problems. Driven by extreme economic distress, a shocking wave of farmers' suicides struck Maharashtra. Nileema and her group responded by raising their work to the level of the village itself. BNGVN helped create a village revolving fund that provided loans for farm inputs and emergency needs; they addressed health problems by building over 300 private and communal toilets; and activated a village assembly to discuss and resolve local needs.
The success of Bahadarpur inspired Nileema to expand her work. In less than ten years, BNGVN has formed 1,800 selfhelp groups in 200 villages across Maharashtra. Its microcredit program has caused to be distributed the equivalent of US$5 million, with a hundred-percent loan recovery rate. But the most critical change has taken place in the villagers' sense of themselves, their newfound confidence that they need not despair, that, working together, they will find a way. For Nileema, now 39 years old, the way has not been easy. She has had to battle frustration and failure, to find which approaches work best for the village. But she remains resolute and passionate about her work. Asked what she speaks of the villagers: "I'm very thankful to them. They are ready to improve themselves."

In electing Nileema Mishra to receive the 2011 Ramon Magsaysay Award for Emergent Leadership, the board of trustees recognizes her purpose-driven zeal to live and work tirelessly with villagers in Maharashtra, India, organizing them to successfully address both their aspirations and their adversities through collective action and heightened confidence in their potential to improve their own lives.
She has decided to donate the entire prize money to her rural microcredit project, In the past, she has got around half a dozen small awards, and every paisa she donated to her cause. Even the prize money from Magsaysay Award will go to Bhagini Nivedita Gramin Vigyan Niketan (BNGVN),The award carries a purse of $50,000 (Rs.22 lakh).
The Ramon Magsaysay Award is an annual award established to perpetuate former Philippine President Ramon Magsaysay's example of integrity in government, courageous service to the people, and pragmatic idealism within a democratic society. The Ramon Magsaysay Award is often considered Asia's Nobel Prize. The prize was established in April 1957 by the trustees of the Rockefeller Brothers Fund based in New York City with the concurrence of the Philippine government.
Every year the Ramon Magsaysay Award Foundation grants the prize to Asian individuals and organizations for achieving excellence in their respective fields. The awards are given in six categories:
Government Service
Public Service
Community Leadership
Journalism, Literature and Creative Communication Arts
Peace and International Understanding
Emergent Leadership
Acharya Vinoba bhave , Jai prakash narayan , Mother Terresa , Arun shouri , Kiran bedi are the other prominnent award winners from India...

Savitribai Phule............सावित्रीबाई फुले



Savitribai Phule (January 3, 1831- March 10, 1897)

was the first female teacher of the first women's school in India and also considered as the pioneer of modern Marathi poetry.

सावित्रीबाई फुले (January 3, 1831- March 10, 1897)

देश की पहली महिला अध्यापिका व नारी मुक्ति आंदोलन की पहली नेता.
लेकिन एक ऐसी महिला जिन्होंने उन्नीसवीं सदी में छुआ-छूत, सतीप्रथा, बाल-विवाह, तथा विधवा-विवाह निषेध जैसी कुरीतियां के विरूद्ध अपने पति के साथ मिलकर काम किया पर उसे हिंदुस्तान ने भुला दिया.ऐसी महिला को हमारा शत-२ नमन...

सावित्रीबाई फुले देश की पहली महिला अध्यापिका व नारी मुक्ति आंदोलन की पहली नेता थीं, जिन्होंने अपने पति ज्योतिबा फुले के सहयोग से देश में महिला शिक्षा की नींव रखी। सावित्रीबाई फुले एक दलित परिवार में जन्मी महिला थीं, लेकिन उन्होंने उन्नीसवीं सदी में महिला शिक्षा की शुरुआत के रूप में घोर ब्राह्मणवाद के वर्चस्व को सीधी चुनौती देने का काम किया था। उन्नीसवीं सदी में छुआ-छूत, सतीप्रथा, बाल-विवाह, तथा विधवा-विवाह निषेध जैसी कुरीतियां बुरी तरह से व्याप्त थीं। उक्त सामाजिक बुराईयां किसी प्रदेश विशेष में ही सीमित न होकर संपूर्ण भारत में फैल चुकी थीं। महाराष्ट्र के महान समाज सुधारक, विधवा पुनर्विवाह आंदोलन के तथा स्त्री शिक्षा समानता के अगुआ महात्मा ज्योतिबा फुले की धर्मपत्नी सावित्रीबाई ने अपने पति के सामजिक कार्यों में न केवल हाथ बंटाया बल्कि अनेक बार उनका मार्ग-दर्शन भी किया। सावित्रीबाई का जन्म महाराष्ट्र के सतारा जिले में नायगांव नामक छोटे से गॉव में हुआ।

महात्मा फुले द्वारा अपने जीवन काल में किये गये कार्यों में उनकी धर्मपत्नी सावित्रीबाई का योगदान काफी महत्वपूर्ण रहा। लेकिन फुले दंपति के कामों का सही लेखा-जोखा नहीं किया गया। भारत के पुरूष प्रधान समाज ने शुरु से ही इस तथ्य को स्वीकार नहीं किया कि नारी भी मानव है और पुरुष के समान उसमें भी बुद्धि है एवं उसका भी अपना कोई स्वतंत्र व्यक्तित्व है । उन्नीसवीं सदी में भी नारी गुलाम रहकर सामाजिक व्यवस्था की चक्की में ही पिसती रही । अज्ञानता के अंधकार, कर्मकांड, वर्णभेद, जात-पात, बाल-विवाह, मुंडन तथा सतीप्रथा आदि कुप्रथाओं से सम्पूर्ण नारी जाति ही व्यथित थी। पंडित व धर्मगुरू भी यही कहते थे, कि नारी पिता, भाई, पति व बेटे के सहारे बिना जी नहीं सकती। मनु स्मृति ने तो मानो नारी जाति के आस्तित्व को ही नष्ट कर दिया था। मनु ने देववाणी के रूप में नारी को पुरूष की कामवासना पूर्ति का एक साधन मात्र बताकर पूरी नारी जाति के सम्मान का हनन करने का ही काम किया। हिंदू-धर्म में नारी की जितनी अवहेलना हुई उतनी कहीं नहीं हुई। हालांकि सब धर्मों में नारी का सम्बंध केवल पापों से ही जोड़ा गया। उस समय नैतिकता का व सास्ंकृतिक मूल्यों का पतन हो रहा था। हर कुकर्म को धर्म के आवरण से ढक दिया जाता था। हिंदू शास्त्रों के अनुसार नारी और शुद्र को विद्या का अधिकार नहीं था और कहा जाता था कि अगर नारी को शिक्षा मिल जायेगी तो वह कुमार्ग पर चलेगी, जिससे घर का सुख-चैन नष्ट हो जायेगा। ब्राह्मण समाज व अन्य उच्चकुलीन समाज में सतीप्रथा से जुड़े ऐसे कई उदाहरण हैं, जिनमें अपनी जान बचाने के लिये सती की जाने वाली स्त्री अगर आग के बाहर कूदी तो निर्दयता से उसे उठा कर वापिस अग्नि के हवाले कर दिया जाता था। अंततः अंग्रेज़ों द्वारा सतीप्रथा पर रोक लगाई गई। इसी तरह से ब्राह्मण समाज में बाल-विधवाओं के सिर मुंडवा दिये जाते थे और अपने ही रिश्तेदारों की वासना की शिकार स्त्री के गर्भवती होने पर उसे आत्महत्या तक करने के लिये मजबूर किया जाता था। उसी समय महात्मा फुले ने समाज की रूढ़ीवादी परम्पराओं से लोहा लेते हुये कन्या विद्यालय खोले।

भारत में नारी शिक्षा के लिये किये गये पहले प्रयास के रूप में महात्मा फुले ने अपने खेत में आम के वृक्ष के नीचे विद्यालय शुरु किया। यही स्त्री शिक्षा की सबसे पहली प्रयोगशाला भी थी, जिसमें सगुणाबाई क्षीरसागर व सावित्री बाई विद्यार्थी थीं। उन्होंने खेत की मिटटी में टहनियों की कलम बनाकर शिक्षा लेना प्रारंभ किया। सावित्रीबाई ने देश की पहली भारतीय स्त्री-अध्यापिका बनने का ऐतिहासिक गौरव हासिल किया। धर्म-पंडितों ने उन्हें अश्लील गालियां दी, धर्म डुबोने वाली कहा तथा कई लांछन लगाये, यहां तक कि उनपर पत्थर एवं गोबर तक फेंका गया। भारत में ज्योतिबा तथा सावि़त्री बाई ने शुद्र एवं स्त्री शिक्षा का आंरभ करके नये युग की नींव रखी। इसलिये ये दोनों युगपुरुष और युगस्त्री का गौरव पाने के अधिकारी हुये । दोनों ने मिलकर ‘सत्यशोधक समाज‘ की स्थापना की। इस संस्था की काफी ख्याति हुई और सावित्रीबाई स्कूल की मुख्य अध्यापिका के रूप में नियुक्त र्हुइं। फूले दंपति ने 1851 मंे पुणे के रास्ता पेठ में लडकियों का दूसरा स्कूल खोला और 15 मार्च 1852 में बताल पेठ में लडकियों का तीसरा स्कूल खोला। उनकी बनाई हुई संस्था ‘सत्यशोधक समाज‘ ने 1876 व 1879 के अकाल में अन्नसत्र चलाये और अन्न इकटठा करके आश्रम में रहने वाले 2000 बच्चों को खाना खिलाने की व्यवस्था की। 28 जनवरी 1853 को बाल हत्या प्रतिबंधक गृह की स्थापना की, जिसमें कई विधवाओं की प्रसूति हुई व बच्चों को बचाया गया। सावित्रीबाई द्वारा तब विधवा पुनर्विवाह सभा का आयोजन किया जाता था। जिसमें नारी सम्बन्धी समस्याओं का समाधान भी किया जाता था। महात्मा ज्योतिबा फुले की मृत्यु सन् 1890 में हुई। तब सावित्रीबाई ने उनके अधूरे कार्यों को पूरा करने के लिये संकल्प लिया। सावित्रीबाई की मृत्यु 10 मार्च 1897 को प्लेग के मरीजांे की देखभाल करने के दौरान हुयी।


Savitribai Jotiba Phule (January 3, 1831- March 10, 1897) was a social reformer who along with her husband, Mahatma Jotiba Phule played an important role in improving women's rights in India during the British Rule.

Savitribai was the first female teacher of the first women's school in India and also considered as the pioneer of modern Marathi poetry. In 1852 she opened a school for Untouchable girls.

Mahatma Jyotiba is regarded as one of the most important figures in social reform movement in Maharashtra and India. He is most known for his efforts to educate women and the lower castes. Jyotirao, then called as Jyotiba was Savitribai’s mentor and supporter. Under his influence Savitribai had taken women’s education and their liberation from the cultural patterns of the male-dominated society as mission of her life. She worked towards tackling some of the then major social problems including women’s liberation, widow remarriages and removal of untouchability.

However, apart from all these oppositions, Savitribai yet continued to teach the girls. Whenever Savitribai went out of her house, groups of orthodox men would follow her and abuse her in obscene language. They would throw rotten eggs, cow dung, tomatoes and stones at her. She would walk meekly and arrive at her school. Fed up with the treatment meted out to her, she even decided to give up. But it was because of her husband that she continued with her efforts. He told Savitribai Jyotiba who was working for women's education had started the first girl’s school and required women teachers to assist him. Jyotiba educated and trained Savitribai, his first and ideal candidate for this job of a teacher. Savitribai and Jyotiba faced fierce resistance from the orthodox elements of society for this. Jyotiba sent her to a training school from where she passed out with flying colours along with a Muslim lady Fatima Sheikh. When Savitribai completed her studies, she, along with her husband, started a school for girls in Pune in 1848. Nine girls, belonging to different castes enrolled themselves as students.

Slowly and steadily, she established herself. Jyotiba and Savitribai managed to open 5 more schools in the year 1848 itself. She was ultimately honoured by the British for her educational work. In 1852 Jyotiba and Savitribai were felicitated and presented with a shawl each by the government for their commendable efforts in Vishrambag Wada.

The next step was equally revolutionary. During those days marriages were arranged between young girls and old men. Men used to die of old age or some sickness and the girls they had married were left widows. Thus, widows were not expected to use cosmetics or to look beautiful. Their heads were shaved and the widows were compelled by society to lead an ascetic life.

Savitribai and Jyotiba were moved by the plight of such widows and castigated the barbers. They organized a strike of barbers and persuaded them not to shave the heads of widows. This was the first strike of its kind. They also fought against all forms of social prejudices. They were moved to see the untouchables who were refused drinking water meant for the upper caste. Both Jyotiba and Savitribai opened up their reservoir of water to the untouchables in the precincts of their house.

Savitribai was not only involved in educational activities of Jyotirao but also in every social struggle that he launched. Once Jyotiba stopped a pregnant lady from committing suicide, promising her to give her child his name after it was born. Savitribai readily accepted the lady in her house and willingly assured to help her deliver the child. Savitribai and Jyotiba later on adopted this child who then grew up to become a doctor and after Jyotiba's death, lit his pyre and completed his duties as a rightful son. This incident opened new horizons for the couple. They thought of the plight of widows in Hindu society. Many women were driven to commit suicide by men who had exploited them to satisfy their lust and then deserted them. Therefore, Savitribai and Jyotiba put boards on streets about the "Delivery Home" for women on whom pregnancy had been forced. The delivery home was called "Balhatya Pratibandhak Griha".

Jyotiba and Savitribai were also opposed to idolatry and championed the cause of peasants and workers. They faced social isolation and vicious attacks from people whom they questioned. After his demise, Savitribai took over the responsibility of Satya Shodhak Samaj, founded by Jyotiba. She presided over meetings and guided workers.

In 1868 she welcomed untouchables to take water from her well.
She worked relentlessly for the victims of plague, where she organized camps for poor children. It is said that she used to feed two thousand children every day during the epidemic. She herself was struck by the disease while nursing a sick child and died on 10 March 1897.

Dr.Archana Sharma...............डा. अर्चना शर्मा



Archana Sharma (born :18 july 1960 – Aligarh, UP )
experimental physicist and a staff member of CERN - European Organization for Nuclear Research.

अर्चना शर्मा (जन्म :18 july 1960 – अलीगढ , उत्तर प्रदेश )
एक्सपेरीमेंटल भौतिक वज्ञानिक एवम दुनिया की सबसे बड़ी भूमिगत प्रयोगशाला सेर्न में स्टाफ फिजिसिस्ट के रूप में कार्यरत

लार्ज हेड्रान कोलाइडर एक्सपेरीमेंट (एलएचसी) प्रयोग से जुड़ी अर्चना शर्मा विज्ञान के क्षेत्र में नए कीíतमान रचती महिलाओं का सबसे ताजा उदाहरण हैं। उम्मीद की जा रही है कि यह प्रयोग भौतिकी के कई बुनियादी नियमों का रहस्य खोलेगा। ब्रह्माण्ड कैसे बना, उसकी शुरुआत कैसे हुई? जैसे कई नियमों के स्पष्ट प्रमाण मिलेंगे। अर्चना ने अपना स्नातक बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से 1980 में किया था। इन महिला वैज्ञानिकों को देख कर कहा जा सकता है कि यह सदी महिला वैज्ञानिकों की है। पिछले एक दशक में विज्ञान और टेक्नोलॉजी की दुनिया में भारतीय महिलाओं ने नई बुलंदियां छुई हैं। यह बात इस मायने में काबिले तारीफ है कि यह भी एक ऐसा क्षेत्र है, जिसमें कम से कम भारत में पुरुषों का एकाधिकार-सा माना जाता था, लेकिन इनके जैसी महिलाओं ने इस परिपाटी को तोड़ दिया है। सबसे प्रमुख बात है कि पिछले एक दशक में भारतीय महिलाओं ने जो काम किए हैं, वह एक मिसाल बन गए हैं। उनके दिए गए नियम, खोजे गए अविष्कारों ने विज्ञान की दुनिया में एक मुकाम हासिल किया है।
डॉ. अर्चना शर्मा जेनेवा में दुनिया की सबसे बड़ी भूमिगत प्रयोगशाला सेर्न में स्टाफ फिजिसिस्ट के रूप में कार्यरत हैं और प्रोटॉन बीम की टक्कर वाले प्रयोग में शामिल होने वाली एकमात्र भारतीय महिला वैज्ञानिक हैं।

सेर्न में मौजूद दुनिया के सबसे बड़े पार्टिकिल कोलाइडर एलएचसी की 27 किलोमीटर लंबी सुरंगनुमा ट्यूब में लगभग रोशनी की रफ्तार से- विपरीत दिशाओ में चक्कर काट रहे प्रोटॉन्स की आपस में टक्कर से उम्मीद की जा रही है कि इस से मिलने वाली जानकारी से पृथ्वी की उत्पत्ति की 'बिग बैंग' थ्योरी को समझने में मदद मिलेगी.यह प्रयोग भौतिकी के कई बुनियादी नियमों का रहस्य खोलेगा। ब्रह्माण्ड कैसे बना, उसकी शुरुआत कैसे हुई? किस चीज़ का बना हुआ है और वह कौन-सी शक्ति है, जो इस दुनिया को, ब्रह्मांड को, बाँधे हुए है? इस प्रयोग से यह रहस्य खुलने का अनुमान है कि आख़िर द्रव्य क्या है? और उनमें द्रव्यमान कहाँ से आता है? भौतिकशास्त्रीयों का कहना है, "हम द्रव्य को उस तरह से देख सकेंगे जैसा पहले कभी नहीं देखा गया." "वह एक सेकेंड का एक अरबवाँ हिस्सा रहा होगा जब ब्रह्मांड का निर्माण हुआ होगा और संभावना है कि हम उस क्षण को देख सकेंगे.क्योकि इस प्रयोग का एक उद्देश्य हिग्स बॉसन कणों को प्राप्त करने की कोशिश करना भी है जिसे इश्वरीय कण भी माना जाता है. यह एक ऐसा कण है जिसके बारे में वैज्ञानिक सिद्धांत रूप में तो जानते हैं और यह मानते हैं कि इसी की वजह से कणों का द्रव्यमान होता है. "
लेकिन परीक्षण से पहले ही इस पर सवाल भी खड़े होने लगे हैं और यहां तक कहा जाने लगा है कि इससे पृथ्वी ब्लैक होल में बदल सकती है.जैसे कई नियमों के स्पष्ट प्रमाण मिलेंगे।पर भारत समेत दुनियाभर के 80 से ज्यादा देशों के 8,000 से ज्यादा वैज्ञानिकों की 14 साल की मेहनत के द्वारा यह साबित हो गया कि इस प्रयोग से कहीं कोई ब्लैक होल पैदा नहीं हुआ और धरती उसमें समा नहीं गई। एलएचसी में प्रोटॉन्स की शानदार टक्कर के बाद अब हमने अज्ञान के ब्लैकहोल से बाहर निकलकर विज्ञान के उजाले की ओर कदम बढ़ा दिए हैं।

बिग बैंग-2 : कुछ रोचक तथ्य

* एलएचसी की 27 किलोमीटर लंबी ट्यूब में आपस में टकराते समय प्रत्येक प्रोटॉन में 150 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से दौड़ती ट्रेन जितनी ऊर्जा होगी।

* एलएचसी को तीन चरणों वाला प्रोटॉन एक्सीलरेटर कहा जा सकता है। पहले चरण में हाईड्रोजन को तोड़कर उसमें से प्रोटॉन निकालने की प्रक्रिया पूरी होती है। इन प्रोटॉन्स को गति देने के लिए दूसरा चरण होगा। तीसरे चरण में प्रकाश की गति से प्रोटॉन्स की बौछार होती है।

* अमेरिका के अपोलो मिशन के बाद यह दुनिया का सबसे बड़ा प्रयोग है।

* यू-ट्यूब पर इस श्रंखलाबद्ध प्रक्रिया का एक काल्पनिक वीडियो जारी किया गया है। इसे अब तक करीब 13 लाख बार देखा गया है।

* सालभर में एलएचसी के जरिए चार बार बिग बैंग को दोहराने की कोशिश की जाएगी और इन प्रक्रियाओं में एफिल टावर जितना ऊंचा मलबा इकट्ठा होगा।

* प्रयोग के आंकड़ों में से सालाना लगभग 15 पिटाबाइट आंकड़ों की छंटाई के बाद भी इतने आंकड़े जुटेंगे कि उनसे 20 लाख डीवीडी तैयार की जा सके। ,

* एलएचसी में प्रत्येक प्रयोग में 140 खरब वोल्ट की ऊर्जा की खपत होगी।

* उपकरण के सबसे अहम व आखिरी चरण में 120 मेगावाट के बराबर ऊर्जा की खपत होगी।

* प्रयोग के लिए 10 हजार से ज्यादा कंपनियों को साझेदार बनाया गया है।

Archana Sharma (born :18 july 1960 – Aligarh, UP )

Archana Sharma is an Indian experimental physicist and a staff member of CERN - European Organization for Nuclear Research since 1987 and is presently working on the Compact Muon Solenoid (CMS) experiment at the Large Hadron Collider (LHC) project in Geneva, Switzerland

She completed her ISCE Senior Cambridge, from St. Francis’ Convent High School, Jhansi, India 1976. and she did B.Sc., Bachelor's from Banaras Hindu University (BHU) in 1980. This was followed by a M.Sc. Master's in Nuclear Physics, also from the Banaras Hindu University, India 1980-1982. She has a PhD in Physics from University of Delhi 1989, a D.Sc fromUniversity of Geneva 1996, and was awarded an Exec. MBA from International University in Geneva in 2001.
.She has given over 30 courses on gaseous detectors in prestigious workshops including ones at the NATO School in St. Croix in 2002, Snowmass Meeting in Denver, Colorado in 2002 and International Committee on Future Accelerators Meetings.
A widely respected scientist she even found a part in a movie where she shared her views about how the mythical theories of creation co-relate with scientific findings at CERN.
So this Apogee, be a witness to the unveiling of the mysteries of universe, with a BIG BANG!!

Neerja Bhanot................नीरजा भनोट



नीरजा भनोट (September 7, 1963 – September 5, 1986)
सबके कम उम्र में प्राप्त किया बहादुरी के लिए मिलने वाले अशोक चक्र (मरणोपरांत)

Neerja Bhanot (September 7, 1963 – September 5, 1986)
youngest recipient of India’s highest civilian award for bravery, the Ashoka Chakra.

२३ वर्षीया चंडीगढ़ निवासी नीरजा भनोट ने कराची हवाईअड्डे पर 5 सितम्बर 1986 के पैन एम एयरलाइंस विमान अपहरण कांड में यात्रियों को बचाने में अदम्य साहस की मिसाल पेश की थी। नीरजा उस विमान में सीनियर एयरहोस्टेस थीं। यात्रियों की जान बचाते हुए अपहर्ताओं की गोली से उनकी जान चली गई थी।
5 सितम्बर 1986 को पैन ऍम 73 विमान का मुंबई से कराची जाते वक़्त चार हथियार बंद लोगों ने अपहरण कर लिया था. उनके पास बंदूकें, हथगोले और विस्फोट थे.
जब आतंकवादियों ने विमान में प्रवेश किया तो एक भारतीय परिचारिका नीरजा भनोट ने विमान के अमरीकी परिचालकों को तुरंत इसकी सूचना दे दी जिसकी वजह से चालक दल तो आपात रास्ते से निकलने में सफल हो सके. पर सबसे सीनियर केबिन क्रू सदस्य होने के नाते इन विपरीत परिस्तिथ्यो में कमान संभाली और अपने को शांत रखते हुए और विश्वास के साथ आतंवादियो से बात चीत करनी शुरू कर दी
नीरजा भनोट ने आतंकवादियों के कहने पर यात्रियों के पासपोर्ट तो जमा किए लेकिन सारे (41 ) अमरीकियों के पासपोर्ट छिपा लिए जिससे कि यह पता न चल सके कि अमरीकी नागरिक कौन हैं क्योकि चरमपंथियों के निशाने पर उस वक्त अमरीका और अमरीकी थे
17 घंटे तक चले इस अपहरण की त्रासदी ख़ून ख़राबे के साथ ख़त्म हुई थी जिसमें 20 लोग मारे गए थे.मारे गए लोगों में से 13 भारतीय थे. शेष अमरीका पाकिस्तान और मैक्सिको के नागरिक थे. इस घटनाक्रम में सौ से अधिक भारतीय घायल हुए थे, जिनमें से कई गंभीर रूप से घायल थे. इस घटनाक्रम के अंत में चरमपंथियों ने नीरजा भनोट को गोली मार दी थी.

यह साहसिक कारनामा करने वाली नीरजा भनोट को भारत सरकार ने मरणोपरांत अशोक चक्र प्रदान किया था।

Neerja Bhanot
Neerja Bhanot (September 7, 1963 – September 5, 1986 , was a flight attendant for Pan Am airlines, based in Bombay, India, who died while saving passengers from terrorists on board the hijacked Pan Am Flight 73 on September 5, 1986, she went on to become the youngest recipient of India’s highest civilian award for bravery, the Ashoka Chakra.
Neerja Bhanot, born in Chandigarh, India, was the daughter of Rama Bhanot and Harish Bhanot, a Mumbai based journalist. She was an alumnus of Sacred Heart Senior Secondary School, Chandigarh, Bombay Scottish School and St. Xavier's College, Mumbai.
Neerja had an arranged marriage in March, 1985 and joined her husband in the Gulf. However, the marriage turned sour following dowry pressure and she returned to her parents' home in Mumbai within two months. Subsequently, she applied for a flight attendant’s job with Pan Am Airline, and upon selection, went to Miami for training as a flight attendant but returned as purser.

Neerja Bhanot was the senior flight purser on the ill-fated Pan Am Flight 73, hijacked after it landed at Karachi at 5 am from Mumbai by four heavily armed terrorists. PA 73 was en route to Frankfurt and onward to New York City . Neerja alerted the cockpit crew about the hijack and, as the plane was on the tarmac, the three-member cockpit crew of pilot, co-pilot and the flight engineer were able to flee from the aircraft. Neerja, being the senior-most cabin crew member on board took on the mantle of leadership in a cool, calm, confident manner.
The hijackers were part of the Abu Nidal Group and as they were allegedly backed by Libya, they were seeking to kill Americans in revenge for the American bombing of Tripoli a few months earlier. They immediately shot dead a passenger who identified himself to the terrorists as being an American. The terrorists, then, instructed Neerja to get the passports collected of all the passengers, so that they could identify the Americans. In a daring act of compassion, Neerja and the other attendants under her charge, hid the passports of the 41 Americans on board and this, in all probability, saved their lives.Indeed, if the terrorists had come to know of this act of Neerja, they would have surely killed her there and then.
After 17 hours, the hijackers opened fire and set off explosives. Acting quickly, Neerja opened the emergency door and helped a number of passengers escape. If she wanted, she could have been the first to jump out of the aircraft and escape.However, she did not and gave her own life while shielding 3 children from a hail of bullets. Neerja was recognised internationally as "the heroine of the hijack" and is the youngest recipient of the Ashoka Chakra, India's highest civilian award for bravery.

For her bravery the Government of India posthumously awarded her the Ashoka Chakra (India's highest decoration for gallantry away from the battlefield, or not in the face of the enemy), being its youngest recipient. In 2004 the Indian Postal Service released a stamp commemorating her.
With the money from the insurance settlement and an equal contribution from Pan Am, Neerja's parents set up the 'Neerja Bhanot Pan Am Trust'. The trust presents two awards every year, one for a flight crew member, worldwide, who actsan beyond the call of duty and another to Indian woman who, when faced with social injustice like dowry, desertion etc. overcomes it with guts and grit AND then helps other women in similar social distress. The award includes a sum of INR 1,50,000, a trophy and a citation.
A square called Neerja Bhanot Chowk is named after her in Mumbai's Ghatkopar (east) suburb by the Mumbai Municipal Corporation.
The civil aviation ministry of India conferred an honor on Neerja Bhanot posthumously on February 18, 2010 in New Delhi on the occasion of the launch of the celebrations of the centenary of Indian Aviation.

अमेरिकियों का दोहरा बर्ताव
नीरजा भनोट की 83 वर्षीय माँ रमा भनोट ने बीबीसी से हुई बातचीत में कहा, "अमेरिका ने कैप्टन आदि सभी को मुआवज़ा दिया क्योंकि वो अमरीकी थे पर भारतीयों को कुछ नहीं दिया गया. क्या ये ज़्यादती नहीं है. क्या भारतीयों का खून खून नहीं है?

उन्होंने कहा,"आपके कैप्टन तो अपहरण का पता चलते ही भाग गए. मेरी बेटी नीरजा ने गोलियाँ खाईं और कई लोगों को बचाया. अमरीकियों के पासपोर्ट छुपाए ताकि लीबियाई अपहर्ता उन्हें मार न डालें."

लेकिन वर्ष 2008 में बुश प्रशासन ने लीबिया के साथ एक समझौता किया था और इसके बाद मुआवज़े के सारे मुक़दमे वापस से लिए थे. इस समझौते के तहत लीबिया ने अमरीका को मुआवज़े के रुप में 1.5 अरब डॉलर का भुगतान किया था.

Kiran Mazumdar-Shaw............किरण मजुमदार शॉ.



किरण मजुमदार शॉ
पद्मश्री (1989 ) और पद्म भूषण (2005)

बेंगलुरू में मार्च 1953 में जन्मी किरण ने 1973 में बेंगलुरू यूनिवर्सिटी से प्राणीशास्त्र में बीएससी और उसके बाद मेलबोर्न, ऑस्ट्रेलिया से स्नातकोत्तर डिग्री हासिल की। 1974 में कार्लटन एंड यूनाइटेड बेवरेजेज में प्रशिक्षु ब्रिवर (किण्वन) के रूप में उन्होंने अपने करियर की शुरुआत की।

इसके बाद 1978 में किरण ने आयरलैंड में बायोकॉन बॉयोकेमिकल्स लि. में प्रशिक्षु मैनेजर के रूप में नौकरी शुरू की, मगर वे नौकरी करने के लिए नहीं बनी थीं। यह बात साबित करने के लिए उन्होंने ज्यादा वक्त नहीं लिया। 1978 में ही किरण ने बायोकॉन इंडिया की स्थापना की। इस कंपनी की स्थापना उन्होंने आयरलैंड की बायोकॉन बायोकेमिकल्स लि. के साथ मिलकर की और तब उनके पास पूँजी के नाम पर सिर्फ 10 हजार रुपए की राशि थी।

बायोकॉन की स्थापना तो हो गई, मगर कंपनी को चलाने के लिए पैसे जुटाने में किरण को कई परेशानियों का सामना करना पड़ा। एक तो भारत में बायोटेक्नॉलॉजी बिलकुल नया क्षेत्र था। दूसरे, भारत में महिला उद्यमी की कल्पना भी मुश्किल थी। महिला को उद्यमी के रूप में देखकर बैंक लोन देने में भी हिचकिचाते थे। इसके बावजूद बायोकॉन ने काम करना शुरू किया। सबसे पहले जो काम कंपनी ने शुरू किया, वह था पपीते के रस से एक एंजाइम बनाना।

इसके बाद कंपनी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा और अब कंपनी पूरी तरह बायोफार्मास्यूटिकल कंपनी बन चुकी है और इस क्षेत्र में शोध में भी अग्रणी है। कंपनी मधुमेह, कैंसर तथा अन्य घातक बीमारियों से संबंधित शोध में भी जुटी है। सफलता से उत्साहित किरण ने वर्ष 2004 में पूँजी बाजार में प्रवेश किया और कंपनी का पब्लिक इश्यू जारी किया।

किरण की सफलता की कहानी तब तक देश में चर्चा का विषय बन चुकी थी और इसी का नतीजा था कि यह पब्लिक इश्यू 30 गुना ओवर सबस्क्राइब हुआ। आज कंपनी का 40 प्रतिशत मालिकाना हक किरण के पास है और 2100 करोड़ रुपए के साथ आज वह भारत की सबसे धनी महिला उद्यमी हैं।

अमेरिका की एक पत्रिका ने वर्ष 2007 में बायोकॉन को दुनिया की बायोटेक्नॉलॉजी कंपनियों में 20वें नंबर पर रखा। उद्योग के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए किरण को राष्ट्रपति द्वारा 1989 में पद्मश्री और 2005 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया है

Kiran Mazumdar-Shaw
Padma Shri (1989) and the Padma Bhushan (2005)

(Born: March 23, 1953) is an Indian businesswoman and founder of Biocon, the biotechnology company based in Bangalore (Bangaluru), India. She is the Chairperson and Managing Director of Biocon Limited, and Chairperson of Syngene International Limited and Clinigene International Limited.
She started Biocon in 1978 and spearheaded its evolution from an industrial enzymes manufacturing company to a fully integrated bio-pharmaceutical company with a well-balanced business portfolio of products and a research focus on diabetes, oncology and auto-immune diseases. She also established two subsidiaries: Syngene (1994) to provide development support services for discovery research and Clinigene (2000) to cater to clinical development services.
Her pioneering work in the sector has earned her several awards, including the prestigious Padma Shri (1989) and the Padma Bhushan (2005) from the government of India.She was recently named among TIME magazine’s 100 most influential people in the world. She is also on the Forbes list of the world’s 100 most powerful women, and the Financial Times’ top 50 women in business list.
1978, she joined Biocon Biochemicals Limited, of Cork, Ireland as a Trainee Manager. In the same year she started Biocon in the garage of her rented house in Bangalore with a seed capital of Rs. 10,000.
Initially, she faced credibility challenges because of her youth, gender and her untested business model. Not only was funding a problem as no bank wanted to lend to her, but she also found it difficult to recruit people for her start-up. With single-minded determination she overcame these challenges only to be confronted with the technological challenges associated with trying to build a biotech business in a country facing infrastructural woes. Uninterrupted power, superior quality water, sterile labs, imported research equipment, and advanced scientific skills were not easily available in India during the time. Never one to give up easily, she took the challenges in her stride and worked within the limiting circumstances to take Biocon to newer and greater heights.
In 1998, when Unilever agreed to sell its shareholding in Biocon to the Indian promoters, Biocon became an independent entity. Two years later, Biocon's proprietary bioreactor, christened PlafractorTM, based on solid matrix fermentation received a U.S. patent and Kiran Mazumdar-Shaw commissioned Biocon’s first fully automated submerged fermentation plant to produce specialty pharmaceuticals. By 2003 Biocon became the first company worldwide to develop human insulin on a Pichia expression system.
In the same year, she incorporated Biocon Biopharmaceuticals Private Limited to manufacture and market a select range of biotherapeutics in a joint venture with the Cuban Centre of Molecular Immunology.
Today, thanks to her leadership, Biocon is building cutting-edge capabilities, global credibility and global scale in its manufacturing and marketing acticities. It has Asia’s largest insulin and statin facilities as also the largest perfusion-based antibody production facilities.
In 2004, she started the Biocon Foundation to conduct health, education, sanitation, and environment programs for the benefit of the economically weaker sections of society. The Foundation’s micro-health insurance program has an enrolment of 70,000 rural members
She helped establish a 1,400-bed cancer care center at the Narayana Health City campus at Boommasandra, Bangalore, along with Dr. Devi Shetty of Narayana Hrudayalaya in 2007. Called the Mazumdar Shaw Cancer Centre (MSCC), it is one of the largest cancer hospitals of its kind, spread as it is over an area of five lakh square feet. It specializes in head and neck
cancer, breast cancer and cervical cancer.

Kadambini Ganguly...........कादम्बिनी गांगुली......



आज के जमाने में ..पढाई लिखाई किसी के लिए मुश्किल नहीं....जो करना चाहे.....वो कर सकता है.....उसके लिए साधन उपलब्ध हैं.......पर एक जमाना था जब अंग्रेजो का शाशन था ...जब पढाई लिखाई करना बहुत ही मुश्किल था.....पुरुष भी बहुत कम मिलते थे..जिन्होंने स्नातक स्तर तक पढाई की हो...उन दिनों में दो महिलाओ ने स्नातक की डिग्री ली....उनमे से एक के बारे में यह लेख हैं.....

Kadambini Ganguly-- first female graduate and first female physician of India to be trained in European medicine

कादम्बिनी गांगुली –पहली महिला स्नातक - यूरोपीय चिकित्सा प्रणाली में प्रशिक्षित
पहली महिला चिकित्सक


Kadambini Ganguly (18 july 1861 – 3 October 1923) was one of the first female graduates of the British Empire along with Chandramukhi Basu. She was one of the first female physicians of South Asia to be trained in European medicine.
: "India ’s first lady Doctor kadambini Ganguly 150 years birth anniversary 26-02-2011 Ganguly, Kadambini (1861-1923) first female graduate ..."

The daughter of Brahmo reformer Braja Kishore Basu, she was born at Bhagalpur, Bihar in British India. The family was from Chandsi, inBarisal which is now in Bangladesh. Her father was headmaster of Bhagalpur School. He and Abhay Charan Mallick started the movement for women's emancipation at Bhagalpur, establishing the women's organisation Bhagalpur Mahila Samiti in 1863, the first in India.

Kadambini started her education at Banga Mahila Vidyalaya and while at Bethune School (established by Bethune) in 1878 became the first woman to pass the University of Calcutta entrance examination. It was partly in recognition of her efforts that Bethune College first introduced FA (First Arts), and then graduation courses in 1883. She and Chandramukhi Basu became the first graduates from Bethune College, and in the process became the first female graduates in the country and in the entire British Empire.

Medical education and profession
Ganguly studied medicine at the Calcutta Medical College. In 1886, she was awarded a GBMC (Graduate of Bengal Medical College) degree, which gave her the right to practice. She thus became one of the two, Anandi Gopal Joshi being the other, Indian women doctor qualified to practice western medicine. Abala Bose passed entrance in 1881 but was refused admission to the medical college and went to Madras (now Chennai) to study medicine but never graduated.
Kadambini overcame some opposition from the teaching staff, and orthodox sections of society. She went to the United Kingdom in 1892 and returned to India after qualifying as LRCP (Edinburgh), LRCS (Glasgow), and GFPS (Dublin). After working for a short period in Lady Dufferin Hospital, she started her own private practice

Social activities
In 1883 she married the Brahmo reformer and leader of women's emancipation Dwarkanath Ganguly. They were actively involved in female emancipation and social movements to improve work conditions of female coal miners in eastern India. She was one of the six female delegates to the fifth session of the Indian National Congress in 1889, and even organized the Women's Conference in Calcutta in 1906 in the aftermath of the partition of Bengal. In 1908, she had also organized and presided over a Calcutta meeting for expressing sympathy withSatyagraha - inspired Indian laborers in Transvaal, South Africa. She formed an association to collect money with the help of fundraisers to assist the workers. In 1914 she presided over the meeting of the Sadharan Brahmo Samaj, which was held in Calcutta to honour Mahatma Gandhi during his Calcutta visit.
As the mother of eight children she had to devote considerable time to her household affairs. She was deft in needlework.

The noted American historian David Kopf has written, “Ganguli's wife, Kadambini, was appropriately enough the most accomplished and liberated Brahmo woman of her time. From all accounts, their relationship was most unusual in being founded on mutual love, sensitivity and intelligence… Mrs. Ganguli's case was hardly typical even among the more emancipated Brahmo and Christian women in contemporary Bengali society. Her ability to rise above circumstances and to realize her potential as a human being made her a prize attraction to Sadharan Brahmos dedicated ideologically to the liberation of Bengal's women.”

कादम्बिनी गांगुली –पहली महिला स्नातक - यूरोपीय चिकित्सा प्रणाली में प्रशिक्षित
पहली महिला चिकत्सक

कादम्बिनी गांगुली (18 जुलाई 1861 - 3 अक्टूबर 1923) चंद्रमुखी बसु के साथ ब्रिटिश साम्राज्यकी पहली महिला स्नातकों में से एक थी . वह दक्षिण एशिया की पहली महिला चिकित्सकों में से एक एवं भारत की पहली महिला चिकत्सक थी जो यूरोपीय चिकित्सा प्रणाली में प्रशिक्षित थी

कादम्बिनी ने बंगा महिला विद्यालय में अपनी शिक्षा शुरू की और Bethune स्कूल(Bethune द्वारा स्थापित) में 1878 में कलकत्ता विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा पास करने वाली पहली महिला बन गयी . आंशिक रूप उसके प्रयासों की वजह से ही Bethune कॉलेज पहली बार एफए (प्रथम कला) शुरू की और फिर 1883 में स्नातक पाठ्यक्रम शुरू किये .वह और चंद्रमुखी बसु Bethune कॉलेज से पहले स्नातक बन गयी , और इस प्रक्रिया में देश में और पूरे ब्रिटिश साम्राज्य में पहली महिला स्नातक बनी
आठ बच्चों की माँ के रूप में उन्हें घर के कामो में काफी समय समर्पित करना पड़ता था और वह सिलाई – कढ़ाई में भी निपुण थी .
उस समय के विख्यात अमेरिकी इतिहासकार डेविड ने लिखा है कि ,"अपने समय की सबसे अधिक निपुण और मुक्त ख़याल वाली औरत थी. उनके हिसाब से रिश्ते आपसी प्रेम, संवेदनशीलता और समझ-बूझ पर बनते है जो कि उस वक्त के लिए सबसे असामान्य बात थी

Dr Indira Hinduja...................डा इंदिरा हिंदुजा



Dr Indira Hinduja – India’s First Test Tube Baby Doctor

डा इंदिरा हिंदुजा - पहली महिला टेस्ट ट्यूब बेबी डाक्टर

6 अगस्त 1986 को भारत में पहली टेस्ट टय़ूब बेबी (पहली या दूसरी यह हमेशा विवादस्पद रहेगा ) हर्षा के जन्म का श्रेय डा इंदिरा हिंदुजा के नाम है पर वो पहली महिला डाक्टर थी जिन्होंने इस कारनामे को अंजाम दिया था । इंदिरा आहूजा ने जिस दौर में टेस्ट टय़ूब बेबी को उत्पन्न किया, उस दौरान विकसित देशों के लिए भी यह प्रयोग आसान नहीं था। उनके इस काम से देश के हजारों निसंतान दम्पतियो को एक आशा की किरण नजर आने लगी थी. | टेस्ट ट्यूब बेबी की तकनीक को इन-विट्रो फर्टिलाइजेशन (आईवीएफ) कहते हैं।

यहाँ यह बताना भी जरूरी है कि कोलकाता में रहने वाले डॉक्टर सुभाष मुखोपाध्याय ने वर्ष 1978 में 3 अक्टूबर को (विश्व की पहली टेस्ट ट्यूब बेबी लुईस के जन्म के सिर्फ 67 दिन बाद ) भारत की प्रथम टेस्ट-ट्यूब बेबी और दुनिया की दूसरी टेस्ट-ट्यूब बेबी 'दुर्गा' को सफलतापूर्वक अस्तित्व में लाये थे , लेकिन उनका यह हैरतअंगेज कारनामा पश्चिम बंगाल की सरकार को उस समय कतई रास नहीं आया था। इस टेस्ट-ट्यूब बेबी के जन्म लेते ही डा. मुखोपाध्याय की यह उपलब्धि नैतिक विवादों में घिर गई थी। पश्चिम बंगाल सरकार ने तो डा. मुखोपाध्याय के इस दावे को मानने से साफ इनकार कर दिया कि उन्होंने इस उपलब्धि के जरिए भारत में इतिहास रच दिया है। यही नहीं, डा. मुखोपाध्याय को इसके चलते सामाजिक बहिष्कार जैसी स्थिति का भी सामना करना पड़ा। उस समय भारत सरकार का रुख भी सही नहीं था क्योंकि उसने डा. मुखोपाध्याय को अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में भाग लेने की इजाजत नहीं दी थी। ऐसे में तंग आकर डा. मुखोपाध्याय ने वर्ष 1981 में 19 जून को आत्महत्या कर ली।

लेकिन फिर भी डा इंदिरा हिंदुजा के काम को कम करके नहीं आँका जा सकता | एक तो डाक्टर सुभाष के काम को इस तारिख के बाद ही मान्यता मिल पाई थी दूसरे वो ऐसे काम करनी वाली पहली महिला थी |

Dr Indira Hinduja – India’s First Test Tube Baby female Doctor

On August 6th 1986 , Dr Indira Hinduja has created what perhaps is the biggest gift for childless couples — India’s first test-tube baby, Harsha Chevda. What she started in 1986, has led today to a plethora of invitro fertilisation (IVF) clinics across Mumbai. But Dr Indira Hinduja, who first made it all happen, has rightfully earned herself a place in Indian medical history. Most cannot forget that sense of wonder when they heard about the birth of Harsha. For Dr Hinduja, it was a culmination of a three-year-long painstaking research in IVF and embryo transfer. Dr Hinduja has successfully delivered more than 1244 test-tube babies in India.

Other ground breaking techniques in her name are the Gamete Intra Fallopian Transfer (GIFT) technique (first birth in 1988) and an oocyte donation technique for menopausal women and premature ovarian failure patients (first birth in 1991).

Dr.Indira Hinduja was born at Shikarpur, (Pakistan) and during the Partition, her family migrated to Mumbai. Indira was only a few months old then.
After living in Belgaum for some years, they moved back to Mumbai in 1963. And ever since, it’s been her home. She studied in Mahila Vidyalaya Belgaum and stayed near Kelkar bag (this is from sources). During her childhood she was unsure of what she wanted to do. She decided to take up medicine when she was in high school. Earlier, she wanted to be a musician. Medicine was decision that came after much thought.

Dr Indira Hinduja is an MD in Gynecology and Obstetrics and she was awarded a Ph D degree for her thesis entitled Human In vitro Fertilisation and Embryo Transfer from Bombay University when she was a full-time practicing obstetrician and gynecologist on the clinical faculty of the Seth G.S. Medical College and King Edward Memorial Hospital, Mumbai. This significant contribution lies in combining her basic successful surgical skills with those of experimental embryology, endocrinology and cell biology, which led to the first ever, scientifically documented ‘test-tube baby’ in the country on August 6, 1986. This creditable achievement was the result of the collaborated efforts of the KEM Hospital and Institute for Research in Reproduction (ICMR).
She is also credited for developing an acolyte donation technique for menopausal and premature ovarian failure patients, giving the country’s first baby out of this technique on January 24, 1991.

For her outstanding performances, she has been felicitated on many occasions. She is the recipient of many awards— Young Indian Award (1987), Outstanding Lady Citizen of Maharashtra State Jaycee Award (1987), Bharat Nirman Award for Talented Ladies (1994), International Women’s Day Award by the mayor of Mumbai (1995; 2000), Lifetime Achievement Award by Federation of Obstetrics and Gynaecological Society of India (1999) and Dhanvantari Award by the governor of Maharashtra (2000) are a few.

Dr.Aditi Pant........................डॉ अदिति पन्त.



Aditi Pant, oceanographer, the first Indian woman to have set foot on the Antarctic

डॉ अदिति पन्त.....पहली भारतीय महिला जिन्होंने... अंटार्कटिका पर कदम रखा .


An eminent oceanographer. She proved that Women have also accepted the challenges of the oceans and have participated in expeditions dealing with ocean research. Dr Aditi Pant is the first Indian woman to participate in the cruise to the icy continent, Antarctica. And has become the first Indian woman to have set foot on the Antarctic The expedition was for a period of 4 months and the participants had to explore this continent under rough weather conditions
Pant was honoured with the Antarctica Award along with Sudipta Sengupta, Jaya Naithani and Kanwal Vilku for their outstanding contribution to the Indian Antarctic programme.
A part of the third Indian expedition to Antarctica in 1983-84, Pant was a member of the scientific team in the summer period.
Born in Nagpur, she did her bachelor's degree in science from the University of Pune.
She did her MS in Marine Sciences from the University of Hawaii and obtained doctorate from the London University in the Physiology of Marine Algae
She worked in The National Institute of Oceanography (Goa) and the National Chemical Laboratory (Pune) .
Aditi, who, said: “The expedition was part of a programme to collect information on the Antarctic — not an adventure trip. It was tax payers’ money that sent us there.” It was the then Prime Minister Indira Gandhi’s initiative, as she wanted India to set up a base camp in the Antarctic, since the likes of Russia, the U.S., the U.K., Australia and China had a presence there. “It was a move driven by political considerations, but had a scientific front,” she says. The Antarctic is a dream for scientists, says Aditi. A few of her team mates studied ice core samples and did weather surveys. “Just studying ice core samples three metres deep can take you back a million years,” she says. “The expedition took place in Antarctic summer — we left in November, and reached in December. It was nice and warm. The temperature was around -20 degrees C, and we left by the time it touched -30 degrees C. The ambience was unusual — huge space and no noise but for the wind. It was all very bleak."
Cold facts
The tents were insulated, but the cold outside was something to contend with. “It’s difficult to work in the cold. Your numb fingers don’t obey you, you have to warm them up every now and then. Everything takes longer than usual.” And, of course, water supply is easier in the summer than in the winter, as the lakes are frozen.
“In the winter, you have to melt the ice for water.” The base camp building, assembled by the army personnel, was designed in the shape of an E, and connected by a corridor. “If we had a fire we could disconnect the buildings, and survive till a rescue team arrived,” she explained. The team was well prepared — three doctors, helicopters, medicines and supplies such as rice, dhal and veggies. Even so, on the way back they ran out of chillies. “They had to be thrown away, as they could not withstand the -16 degrees. The onions rot, and the food was horribly bland.”
Interestingly, on one of the expeditions (Aditi went on two) the temperature in the Antarctic was 10 degrees as opposed to Canada’s -20 degrees! And she also remembers her encounters with the Emperor Penguin. “The Emperor Penguin is neither friendly nor unfriendly. It doesn’t care as long as it is not touched.”
About any gender discrimination she could have faced, she says, “In my profession, I have never faced it, and never allowed it to happen. There are lots of competent women doing excellent work. There are women scientists who have stayed in the Antarctic for sixteen months. We have reached a stage where we don’t need role models. We just go out and do our bit.”
डॉ अदिति पन्त.....पहली भारतीय महिला जिन्होंने... अंटार्कटिका पर कदम रखा .
सन १९८१ में जुलाई के महीने में दिल्ली में महासागर विकास विभाग बनाया गया ..इसका महत्त्व इसी बात से साफ़ हो जाता है कि यह सीधे प्रधानमंत्री की देख रेख में आता था ....उस समय की प्रधानमंत्री थी श्रीमती इंदिरा गांधी .... उन्होंने इस विभाग कीअंटार्कटिका में जाने और एक गुप्त योजना पर काम करने का आदेश दिया ...इस आपरेशन का नाम रखा गया आपरेशन गंगोत्री .....इसको गुप्त रखने का एक ही कारण था कि वहां के मौसम के बारे में सही जानकारी नहीं थी और पता नही नही था कि यहाँ के आनिश्चित वातवरण में यह आपरेशन सफल होगा भी या नही .....लेकिन फिर दो बार वहा कैंप भी लगे......फिर सोचा गया कि वहा कि कठिन परिस्तिथ्यो में क्या महिलाए रह सकती हैं....और सहमति यह बनी कि..
चार महीने का तो प्रवास वहां महिलाये आसानी से कर सकती है .. पर उनको अपने घर बार से दूर रहना होगा...... वहा तूफानी हवा का सामना ....कडाके की सर्दी .....मौसम का सामना करना और स्टेशन की देखभाल आदि करने का काम है जिसको कोई भी महिला अपने संघर्ष से आसानी से कर सकती है ...लेकिन सबसे बड़ी समस्या होती है पुरूषों की मानसिकता से जो ख़ुद को महिलाओं से अधिक श्रेष्ट मानते हैं ...और यहाँ तो वैसे भी पुरुषों का दबदबा रहा है ....यह सिर्फ़ भारतीय पुरुषों के साथ नही है .अन्य केन्द्र भी यहाँ इसी दंभ से भरे हुए हैं ...इसका एक उदाहरण मिला यही की एक किताब में जब अमरीकी स्टेशन मैकमुर्डोपर दो अमरीकी महिला सदस्य पहुँची तो कोई पुरूष वहां स्टेशन पर रहने वाला उनके स्वागत को बाहर तक नही आया और यही अहंकार उनके पुरूष होने का उनकी वहां की हर बात चीत में झलकता है ..बस यही एक समस्या है कि जब अकेली महिला वहां हो तो उसको इस अतरिक्त मानसिक दबाब को सहना पड़ता है. ......लेकिन इसकी भी प्रवाह किये बिना तीसरे कैंप (१९८३-८४) के लिए डॉ अदिति पन्त का चुनाव हुआ....वो समुन्दर विज्ञान के अनुसंधान में निपुण थी........
नागपुर में जन्मी अदिति पन्त ने पुणे विश्वविद्यालय से विज्ञानं में सनातक कि डिग्री प्राप्त की थी उसके बाद उन्होंने Marine Sciences में University of Hawaii से MS किया फिर डाक्टरेट कि डिग्री उन्होंने London University से Physiology of Marine Algae में ली ..

उन्होंने The National Institute of Oceanography (Goa) और the National Chemical Laboratory (Pune) में काम किया था .
भारतीय महिलाओं में तीन वैज्ञानिक महिलाओं डॉ सुदीप्त सेनगुप्ता ,डॉ आदिती पन्त और डॉ जया नैथानी और एक मेडिकल आफिसर डॉ कंवल विल्कू को अंटार्कटिका अवार्ड से सम्मानित किया जा चुका है
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Sarla Thakral................................ सरला ठकराल



India’s First women in air – India’s first lady pilot – Sarla Thakral

सरला ठकराल........ भारत की पहली महिला विमान चालक.

लाहौर हवाई अड्डा और साल 1936. इक्कीस वर्षीया सरला ठकराल ने अपनी साड़ी का पल्लू ठीक किया और जा बैठीं जिप्सी मॉथ नामक दो सीटों वाले विमान में. आँखों पर चश्मा चढ़ाया और ले उड़ीं उसे आकाश में...सुनने में एक परी कथा ही लगती हैं क्योकि यह वो समय था जब आकाश में उड़ना ही एक बड़ी बात थी. जहाज उड़ाना बहुत ही बड़ी चीज समझी जाती थी और ऊपर से पुरुष का उस समय इस क्षेत्र पर पूरी तरह से वर्चस्व था. इस तरह वो भारत की पहली महिला विमान चालक बनीं. सरला ठकराल ने 1929 में दिल्ली में खोले गए फ़्लाइंग क्लब में विमान चालन की ट्रेनिंग ली थी और एक हज़ार घंटे का अनुभव बटोरा था. वहीं उनकी भेंट अपने भावी पति से हुई. शादी के बाद उनके पति ने उन्हें व्यावसायिक विमान चालक बनने के लिए प्रोत्साहन दिया.
सरला ठकराल जोधपुर फ्लाइंग क्लब में ट्रेनिंग लेने लगीं. 1939 में एक विमान दुर्घटना में उनके पति मारे गए. फिर दूसरा विश्व युद्ध छिड़ गया और जोधपुर क्लब बंद हो गया. उसके बाद उन्होंने अपने जीवन की दिशा बदल ली.
उनके माता-पिता ने उनका दूसरा विवाह किया और वो विभाजन के बाद लाहौर से दिल्ली आ गईं.यहाँ आकार उन्होंने पेंटिंग शुरू की ..फिर वो कपडे और गहने डिजाईन करने लगी.और करीब २० साल तक वो अपने बनायीं चीजे विभिन्न cottage industries को देती रही.

India’s First women in air – India’s first lady pilot – Sarla Thakral

The year 1936 when the flying was like dream, flying in air was like miracle.
There were only male in the cockpit of the airplane.
At that time one lady entered the cockpit of a Gypsy Moth and flew into the blue skies, and made a history as India’s first lady pilot.
The dashing, courageous, Sarla Thakral. She was only 21 year old when she achieved that sky.
First inning
Inspiration:
Her husband P D Sharma was the initiator behind that and father-in-law was the supportive of all the things.
P D Sharm’s family after all had nine pilots already and they were all supportive of the decision.
“In fact it wasn’t so much my husband. My father-in-law was even more enthusiastic and got me enrolled in the flying club,” says Sarla and adds,” I knew I was breaching a strictly male bastion but I must say the men, they never made me feel out of place.”
She obtained her ‘A’ license when she accumulated over 1000 hours of flying.

She was looking for the group B license that would authorize her to fly as a commercial pilot. But when she was undergoing training in Jodhpur, unfaith happened. Her husband died in a crash in 1939. She widowed at 24. She abandoned her plans to become a commercial pilot.

Second inning:

She joined the Mayo School of Arts in Lahore. But her parents re-married her and she settled in Delhi after partition. She succeeded in establishing herself as a renown painter. Most of her water colors have followed the Bengali School of Art.
Along with paintings she also began designing clothes and costume jewellery.
She supplied her jewellery designs to several cottage industries for over 20 years. She had also started textile printing and her sari prints were a rage with the fashionable crowd.
One of the clients was Vijaylaxmi Pandit.
Now she is 91 years old young lady still flying high in his life.
“Every morning I wake up and chart out my plans. If there is plenty of work I feel very happy otherwise I feel a precious day has been wasted,” she says.

Naina Lal Kidwai................नैना लाल किदवई



नैना लाल किदवई

भारत में एचएसबीसी समूह की हेड और ग्रुप जनरल मैनेजर नैना लाल किदवई आज महिलाओं के लिए प्रेरणास्रोत बन चुकी हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय से इकनॉमिक्स में स्नातक नैना ने अपने पेशे की शुरुआत एक चार्टर्ड एकाउंटेंट के रूप में की थी। वह हार्वर्ड बिजनेस स्कूल से एमबीए की डिग्री हासिल करने वाली पहली भारतीय महिला थीं। हाल में उन्हें फिक्कीन का उपाध्यक्ष चुना गया है।

Naina Lal Kidwai was the first Indian woman to graduate from the Harvard Business School. Fortune magazine listed Kidwai among the World's Top 50 Corporate Women from 2000 to 2003. According to the Economic Times, she is the first woman to head the operations of a foreign bank in India (HSBC). Kidwai was awarded the Padma Shri this year.


CA. Naina Lal Kidwai is an Indian businesswoman. She is currently the Group General Manager and Country Head of the HSBC Group in India.
Born: 1957, in India.

Education
An Indian chartered accountant Kidwai earned a Bachelors degree in Economics from Lady Shri Ram College for Women, Delhi University and an MBA from Harvard Business School(graduated 1982).She was the first Indian woman to graduate from Harvard Business School

Career
From 1982-1994 she worked at ANZ Grindlays, where her assignments included Head of the Investment Bank , Head of Global NRI Services and Head of the Western India, Retail Bank. During 1994-2002, she worked at Morgan Stanley as Vice Chairman of JM Morgan Stanley and Head of the Investment Bank in India. At HSBC she has held positions as Chief Executive Officer and Deputy Chief Executive Officer of HSBC Bank in India and Managing Director and Managing Director of HSBC Securities and Capital Markets India Private Limited. She became the group's country head in 2009.

Her other positions include being a non-executive director on the board of Nestle SA, Chairman, City of London's Advisory Council for India, Global Advisor, Harvard Business School. She is on the Governing Board of NCAER, Audit Advisory Board of the Comproller and Auditor General of India, and on the National Executive Committee of CII and FICCI. Her interests include microfinance and livelihood creation for rural women and environment. Naina, also supports the world's largest youth driven organization - AIESEC as a National Advisory Board Member to AIESEC India.

Awards and recognitions
Kidwai has repeatedly ranked in the Fortune global list of Top Women in Business, 12th in the Wall Street Journal 2006 Global Listing of Women to Watch ad listed by Time Magazineas one of their 15 Global Influentials 2002. In 2007, She received the Padma Shri, for her work in the promotion of Trade and Industry.
Personal life
Naina is married to Rashid Kidwai, who runs the NGO, Grassroot Trading Network for Women.she has two children.

Rani Chennamma of kittur.........रानी चेन्नम्मा



Rani Chennamma of kittur

रानी चेन्नम्मा
उत्तर भारत में जो स्थान स्वतंत्रता संग्राम के संदर्भ में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का है, कर्नाटक में वही स्थान कित्तूर की रानी चेन्नम्मा का है। चेन्नम्मा ने लक्ष्मीबाई से पहले हीअंग्रेज़ों की सत्ता को सशस्त्र चुनौती दी थी और अंग्रेज़ों की सेना को उनके सामने दो बार मुँह की खानी पड़ी थी।

परिचय

चेन्नम्मा का अर्थ होता है सुंदर कन्या। इस सुंदर बालिका का जन्म 1778 ई. में दक्षिण के काकातीय राजवंश में हुआ था। पिता धूलप्पा और माता पद्मावती ने उसका पालन-पोषण राजकुल के पुत्रों की भाँति किया। उसे संस्कृत भाषा, कन्नड़ भाषा, मराठी भाषा और उर्दू भाषा के साथ-साथ घुड़सवारी, अस्त्र शस्त्र चलाने और युद्ध-कला की भी शिक्षा दी गई।
विवाह
चेन्नम्मा का विवाह कित्तूर के राजा मल्लसर्ज के साथ हुआ। कित्तूर उन दिनों मैसूर के उत्तर में एक छोटा स्वतंत्र राज्य था। परन्तु यह बड़ा संपन्न था। यहाँ हीरे-जवाहरात के बाज़ार लगा करते थे और दूर-दूर के व्यापारी आया करते थे। चेन्नम्मा ने एक पुत्र को जन्म दिया, पर उसकी जल्दी मृत्यु हो गई। कुछ दिन बाद राजा मल्लसर्ज भी चल बसे। तब उनकी बड़ी रानी रुद्रम्मा का पुत्र शिवलिंग रुद्रसर्ज गद्दी पर बैठा और चेन्नम्मा के सहयोग से राजकाज चलाने लगा। शिवलिंग के भी कोई संतान नहीं थी। इसलिए उसने अपने एक संबंधी गुरुलिंग को गोद लिया और वसीयत लिख दी कि राज्य का काम चेन्नम्मा देखेगी। शिवलिंग की भी जल्दी मृत्यु हो गई।

कित्तूर पर हमला
अंग्रेज़ों की नजर इस छोटे परन्तु संपन्न राज्य कित्तूर पर बहुत दिन से लगी थी। अवसर मिलते ही उन्होंने गोद लिए पुत्र को उत्तराधिकारी मानने से इन्कार कर दिया और वे राज्य को हड़पने की योजना बनाने लगे। आधा राज्य देने का लालच देकर उन्होंने राज्य के कुछ देशद्रोहियों को भी अपनी ओर मिला लिया। पर रानी चेन्नम्मा ने स्पष्ट उत्तर दिया कि उत्तराधिकारी का मामला हमारा अपना मामला है, अंग्रेज़ों का इससे कोई लेना-देना नहीं। साथ ही उसने अपनी जनता से कहा कि जब तक तुम्हारी रानी की नसों में रक्त की एक भी बूँद है, कित्तूर को कोई नहीं ले सकता। रानी का उत्तर पाकर धारवाड़ के कलेक्टर थैकरे ने 500 सिपाहियों के साथ कित्तूर का किला घेर लिया। 23 सितंबर, 1824 का दिन था। किले के फाटक बंद थे। थैकरे ने बस मिनट के अंदर आत्मसमर्पण करने की चेतावनी दी। इतने में अकस्मात क़िले के फाटक खुले और दो हज़ार देशभक्तों की अपनी सेना के साथ रानी चेन्नम्मा मर्दाने वेश में अंग्रेज़ों की सेना पर टूट पड़ी। थैकरे भाग गया। दो देशद्रोही को रानी चेन्नम्मा ने तलवार के घाट उतार दिया। अंग्रेजों ने मद्रास और मुंबई से कुमुक मंगा कर 3 दिसंबर, 1824 को फिर कित्तूर का किला घेर डाला। परन्तु उन्हें कित्तूर के देशभक्तों के सामने फिर पीछे हटना पड़ा। दो दिन बाद वे फिर शक्तिसंचय करके आ धमके। छोटे से राज्य के लोग काफ़ी बलिदान कर चुके थे। चेन्नम्मा के नेतृत्व में उन्होंने विदेशियों का फिर सामना किया, पर इस बार वे टिक नहीं सके। रानी चेन्नम्मा को अंग्रेज़ों ने बंदी बनाकर जेल में डाल दिया। उनके अनेक सहयोगियों को फाँसी दे दी। कित्तूर की मनमानी लूट हुई।

मृत्यु
21 फरवरी, 1829 ई. को जेल के अंदर ही इस वीरांगना रानी चेन्नम्मा का देहांत हो गया|

Friday, August 5, 2011

Maharani Ahilyabai Holkar...महारानी अहिल्याबाई होलकर



महारानी अहिल्याबाई होलकर

सर्वजन कल्याणकारी प्रथम भारतीय महिला शासिका !!!

सही मायनों में समाजसुधारक गतिविधियों की शुरुआत अंगरेजी शासनकाल में महात्मा फुले ने की। इसी आदर्श को लेकर छत्रपति शाहू महाराज, डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर, रामासामी पेरियार, नारायण गुरु, अण्णाभाऊ साठे, कर्मवीर भाऊराव पाटिल ने भी समाज सुधार के कार्य किए। इसके पहले धर्म की सत्ता गिने चुने लोगों के हाथ में थी। भारतीय स्त्री किसी भी धर्म या जाति की हो, उसके साथ शूद्रवत व्यवहार किया जाता था। पति के साथ सती होना ही पुण्य का काम था। महाराष्ट्र में पेशवाई शासन में हिन्दवी स्वराज्य की धूमधाम थी। ऐसे समय में महान क्रन्तिकारी महिला शासिका महारानी अहिल्याबाई होल्कर का उद्भव हुआ ।

अहिल्याबाई का जन्म 31 मई 1725 को अहमदनगर जिले के चौंडी नाम के गांव में हुआ । अटक के पार शिवराया की हिन्दवी पताका फहराने वाले तथा मध्यप्रदेश में हिन्दवी स्वराज्य के स्थापक महान योद्धा मल्हारराव होलकर इनके श्वसुर थे । इन्होंने प्रजाहितकारी व सुखशांति पूर्ण राज्य की स्थापना की। राज्य के उत्तराधिकारी खंडेराव होल्कर की मृत्यु हो गई। धर्म व रूढि के अनुसार अहिल्याबाई के सती होने की नौबत आ गई, किन्तु जनता के हितार्थ निर्माण किए गए राज्य को पेशवा के हाथों में चले जाने पर प्रजा को होने वाले भयंकर कष्ट को देखते हुए मल्हार राव होल्कर ने धर्म की पाखंडी परंपरा तोड़ते हुए अहिल्याबाई को सती होने से रोका और राज्य की बागडोर भी अहिल्याबाई को सोंपने का कार्य किया। “मेरी मृत्यु हो जाने पर मुझे सुख मिलेगा किन्तु मेरे जीवित रहने पर लाखों प्रजाजनों को सुख मिलेगा, ऐसा मानते हुए और लोकनिन्दा की परवाह न करते हुए अहिल्याबाई ने धर्म के पाखंड के विरुद्ध यह पहला विद्रोह किया। धर्म के नाम पर भारतीय स्त्री को शिक्षा व राज्य करने का अधिकार नहीं था। इसके विरुद्ध भी अहिल्याबाई ने दूसरा विद्रोह करते हुए राज्य की सत्ता स्वयं सँभाल ली। यही नहीं, श्वसुर, पति, पुत्र की मृत्यु होने पर भी मनोधैर्य न खोते हुए उन्होंने राज्य का सफल संचालन किया। प्रजा को कष्ट देने वालों को पकड़कर उन्हें समझाने की कोशिशें कीं तथा उन्हें जीवनयापन के लिए जमीनें देकर सुधार के रास्ते पर लाया गया, जिसके फलस्वरूप उनके जीवन सुखी व समृद्ध हुए। प्रजा से न्यूनतम कर वसूला गया ताकि प्रजा को कर बोझ समान न लगे। कर से प्राप्त धन का उपयोग केवल प्रजाहित के कार्यों में ही किया गया। अहिल्याबाई का मानना था कि धन, प्रजा व ईश्वर की दी हुई वह धरोहर स्वरूप निधि है, जिसकी मैं मालिक नहीं बल्कि उसके प्रजाहित में उपयोग की जिम्मेदार संरक्षक हूँ । उत्तराधिकारी न होने की स्थिति में अहिल्याबाई ने प्रजा को दत्तक लेने का व स्वाभिमान पूर्वक जीने का अधिकार दिया। प्रजा के सुख दुख की जानकारी वे स्वयं प्रत्यक्ष रूप प्रजा से मिलकर लेतीं तथा न्याय-पूर्वक निर्णय देती थीं। उनके राज्य में जाति भेद को कोई मान्यता नहीं थी व सारी प्रजा समान रूप से आदर की हकदार थी। इसका असर यह था कि अनेक बार लोग निजामशाही व पेशवाशाही शासन छोड़कर इनके राज्य में आकर बसने की इच्छा स्वयं इनसे व्यक्त किया करते थे । अहिल्याबाई के राज्य में प्रजा पूरी तरह सुखी व संतुष्ट थी क्योंकि उनका विचार में प्रजा का संतोष ही राज्य का मुख्य कार्य होता है। लोकमाता अहिल्या का मानना था कि प्रजा का पालन संतान की तरह करना ही राजधर्म है । यदि किसी राज्य कर्मचारी ने या उसके नजदीकी परिवारी ने प्रजा से धनवसूली की तो उस कर्मचारी को तुरन्त सजा देकर उसे अधिकार विहिन कर दिया जाता था। समस्त प्रजाजनों को न्याय मिले इसके लिए उन्होंने गांवों में पंचायती व्यवस्था, कोतवालों की नियुक्ति, पुलिस की व्यवस्था, न्यायालयों की स्थापना था राजा को प्रत्यक्ष मिलकर न्याय दिए जाने व्यवस्था थी एवं उसी प्रकार कृषि व वाणिज्य की अभिवृद्धि पर ध्यान देते हुए कृषकों को न्याय देने की व्यवस्था की गई थी । प्रजा की सुविधा के लिए रास्ते, पुल, घाट, धर्मशालाएं, बावड़ी, तलाब बनाये गए थे। बेरोजगारों हेतु रोजगारों धंधों की योजनाएं थीं। रास्तों के दोनों ओर वृक्षारोपण किए गए थे, गरीब तीर्थयात्रियों की सुविधा के लिए अन्नदान क्षेत्र व रहने के लिए धर्मशालाओं के निर्माण किये गए थे। अपने ही राज्य में नहीं बल्कि अहिल्याबाई ने तीर्थयात्रियों की सुविधा के लिए संपूर्ण भारत भर में अन्य राज्यों की सीमांन्तर्गत भी इन सुविधाओं की व्यवस्था की थी।

अहिल्याबाई ने समाज-शत्रुओं व असमाजिक तत्वों पर अंकुश लगाकर उनके भी पुनर्वास की व्यवस्था की । समाज व्यवस्था, राजकाज व न्याय व्यवस्था के विषय में सुधार किए। उनके इन सामाजिक, राजकीय कामों से प्रजा प्रसन्न व संतुष्ट थी, अतः उनका शासन पूर्णतः शान्ति पूर्ण था । राज्यभर में शान्ति व सुख का ऐसा माहौल था, जिसकी चर्चा पंड़ित जवाहरलाल नेहरू ने भी की है। 13 अगस्त 1795 ई. को लोकमाता अहिल्याबाई की मृत्यु हुई