Saturday, October 29, 2011

Dr Vandana Shiva............डा वंदना शिवा



Dr Vandana Shiva (b. November 5, 1952)

philosopher, environmental activist, and eco feminist. authored more than 20 books and over 500 papers

डा वंदना शिवा (जन्म. 5 नवंबर 1952)
एक दार्शनिक, पर्यावरण कार्यकर्ता, पर्यावरण संबंधी नारी अधिकारवादी एवं कई पुस्तकों की लेखिका
वंदना शिवा पर्यावरण के लिए किसी भी मंच पर लडाई लडने में सबसे पहले नाम आता है डॉ. वंदना शिवा का। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंच से उन्होंने पर्यावरण संरक्षण की आवाज बुलंद की है। इंटरनेशनल फोरम आन ग्लोबलाइजेशन की सदस्य वंदना शिवा ने 1984 में केंद्र सरकार की हरित क्रांति का भी विरोध किया था, क्योंकि उन्होंने हरित क्रांति के पीछे रासायनिक खादों के भयानक इस्तेमाल की तैयारी सूंघ रखी थी।
उनके ही शब्दों में.….मैंने जब 1984 में हरित क्रांति का विरोध शुरू किया था तो इसके पीछे एक मकसद था। कहा जाताथा कि पंजाब में हरित क्रांति से खुशहाली आएगी। चीन में लाल क्रांति हुई लेकिन भारतमें बीजों के द्वारा होगी क्रांति। कहा गया कि हरित क्रांति से किसान संपन्न होंगे।संपन्न किसान कभी हथियार नहीं उठाएंगें। लेकिन 80 के दशक में तो बंदूक ही बंदूक थी।पंजाब में खालिस्तान बनने लग गया था।
हरित क्रांति अनाज उगाने की क्रांतिनहीं बल्कि रासायन बेचने की क्रांति थी। रासायनिक उत्पादों के बाजार बनाने के चक्कर में आपने अपनी फसलों को गायब कर दिया। इस देश में कमी किस चीज की है? इस देश मेंप्रोटीन की कमी है। इस देश में तेल की कमी है। जबकि हरित क्रांति के नाम परतिलहन और दलहन ही गायब कर दिए गए। जो बदलाव हुआ उसमें यहतय हो गया कि आप मिश्रित खेती की जगह पर अकेला गेहूं और चावल उगाओगे। जबकि यदि आपउतना जमीन और पानी गेंहू और चावल के उत्पादन पर लगा देते तो यहां के किसान बिनाकिसी नए बीज के उतना गेंहू चावल उगा लेते। हमारे पुराने बीजों इतने क्षमता वाले थे।फिर उसी हरित क्रांति और रासायनिक खेती की वजह से किसानों के खर्च बढ़ गए। परपहले उस खर्च को सब्सिडी के नाम पर छिपाया गया। जब धीरे धीरे सब्सिडी हटायी जानेलगी तब किसानों को इसकी असलियत का पता चला। पंजाब के किसानों को यह लगने लगा है किवह खर्च ज्यादा करते हैं और तुलना में मिलता कम है।
किसान क्या उगाएगा यह भी वह तय नहीं कर पा रहा है। यह दिल्ली और वाशिंगटन में बैठी सरकारें तय कर रही हैं। तभी वहां 80 के दशक में आतंकवाद शुरू हुआ। 90 के दशक में वही संकट और भी गहरा होता चलागया। अब किसान आत्महत्या करने पर मजबूर हैं। यह कोई खाद्य सुरक्षा का रास्ता है? यहतो किसानों को खत्म करने का रास्ता है।
उनके अनुसार..हमारा उत्पादन कम नहीं है।  हमारा उत्पादन अमरीका से कहीं ज्यादा है। अमरीका कीआबादी ही कितनी है। फिर हम अकेले सोयाबीन और मक्का नहीं उगा रहे हैं। हमें मिश्रितफसलें उगानी होती है। यदि आप पूरी विविधता का उत्पादन देखेंगे तो आज भी भारत का उत्पादन अमरीका से ज्यादा है। अमरीका में उत्पादन की व्यवस्था निगेटिव अर्थव्यवस्था है। वहां दस कैलोरी खर्च करके एककैलोरी पैदा करते हैं। उनकी औद्योगिक अर्थव्यवस्था का आधार सस्ते पेट्रोलियम पर टिका था। सस्ते तेल का जमाना खत्म हो गया है। इसलिए अमेरिका का सारा ढांचा टूट रहा है. उनकी खेती का ढांचा भी टूटेगा. हमारी खेती इकोलॉजिकल है। हमारी खेती मेहनत की खेती है। पेट्रोलियम आधारितखेती नहीं है। आज उसी इलाके में सबसे ज्यादा आत्महत्याएं होरही हैं जहां बीटी कॉटन पहुंचा है. अमेरिका का अनाज जहरीला और घटिया होता है। हम अमरीका का मॉडल नहीं अपना सकते।
वो आगे कहती है...हमने 1965 से अमरीका के कहने पर रासायनिक उत्पादों को सब्सिडाइज किया। पूरे देश में रासायनिक उत्पादों का बाजार चला दिया। आजयदि रासायनिक उत्पादों से मुक्त खेती करनी है तो इसकी तीन जरूरते हैं। पहलाकिसानों की आत्महत्या को रोकना पड़ेगा। आत्महत्या ऋण से जुड़ा है और ऋण रासायनिकउत्पादों से जुड़ा हुआ है। अगर किसान आत्महत्या रोकना है तो आपको रासायनिक उत्पादोंसे मुक्त खेती को बढ़ावा देना होगा। इसके लिए आपको 11वीं पंचवर्षीय योजना में नीतिगतफैसले करने पड़ेगे। रासायनिक खेती दस गुणा ज्यादा पानी पीती है। देश के लोग पानी पीनहीं पा रहे हैं,खेती में कहां से लगा पाएंगें। हमारे शोध ने दिखाया है कि आर्गेनिक खेती करके बिना उत्पादन पर घाटा खाये 70 प्रतिशत तक पानी की कमी कर सकते हैं। तीसरा कि यदि रासायनिक प्रभाव हटाना है तो खाने के चीजों से इसे अलग रखना होगा। आप नीति बनाइए, इस देशके लिए। दुख की बात है कि इस देश की नीति बन रही है वाशिंगटन में।नॉलेज एग्रीमेंट आफ एग्रीकल्चर हस्ताक्षर किए हैं उसके बोर्ड में मोनसेंटो और वालमार्ट है। भारत को अंतरराष्ट्रीय बहुराष्ट्रीय कंपनियों का बाजार बनाया जा रहाहै। ये नीति इस देश को खत्म कर देगी.
आज प्राकृतिक खेती पर भी प्रशंसनीय कार्य किये गए है । पर इन सभी का योगदान हमारे कृषि विश्वविद्यालयों के लिए कोई मायने नहीं रखता और पाठ्यक्रमों में इनके नाम तक नहीं हैं । यदि हमारे अनुसंधानकर्ताओ  ने ही उनकी सुध नहीं ली है उनके बताए नुस्खों पर प्रयोग नहीं किए तो इन वैज्ञानिकों का कार्य किसानों तक कैसे पहुचेगा और कहां से आएगी हमारे खेती में समृद्धि कौन बताएगी हमारे खेती में समृद्धि कौन बताएगा गावों को स्वालंबी व कैसे दूर होगी खेती की उपेक्षा ?

उनके अनुसार ...प्रकृति अपने उत्पादित कचरे को ठिकाने लगाती और उपयोगी बनाती रहती है । पशुओ  के मल-मूत्र, पेड़ों से गिरे पत्ते आदि सड़ गल कर उपयोगी खाद बन जाते हैं और वनस्पति उत्पादन में काम आते हैं । मनुष्य का मल - मूत्र भी उतना ही उपयोगी है पर इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि उससे खाद न बनाकर नदी - नालों में बहा दिया जाता है और पेय जल को दूषित कर दिया जाता है । इससे दुहरी हानि है, खाद से वंचित रहना और कचरे को नदियों में फेंककर बीमारियों को आमन्त्रित करना । सरकारी तथा गैर सरकारी स्तरों पर किए जा रहे अनेक प्रयासों के बावजूद इन दिनों कचरे में भयानक वृद्धि हो रही है । हर वस्तु कागज, प्लास्टिक की थैली, पत्तल, दोना, डिब्बा आदि में बंद करके बेची जाती है । वस्तु का उपयोग होते ही वह पेकिंग कचरा बन जाती है और उसे जहां - तहां सड़कों, गलियों में फेंक दिया जाता है । इसकी सफाई पर ढेरों खर्च तो होता है, विशेष समस्या यह है कि उसे डाला कहां जाए ? आजकल शहरों के नजदीक जो उबड़ खाबड़ जमीनें होती हैं वे इस कचरे से भर जाती हैं ।
फूड सेफ्टी बिल के बारे में वह कहती है कि...यह आबाद करने के लिए नहीं बर्बाद करने के लिए है। इस बिल का बहाना क्या है?हमारा खाद्य सुरक्षित नहीं अब हम सुरक्षित खाना खाएंगे. क्या भारतके लोग ज्यादा बुरा खाना खा रहे थे। अमरीका से ज्यादा अच्छा खाना खा रहे हैं।हमारे खाने में आज भी स्वाद है। वहां का सारा खाना इंडस्ट्री प्रोसेस्ड है। इस देशमें एक कानून था प्रीवेंशन आफ फूड एडलट्रेशन एक्ट। उस एक्ट के तहत खाने में गलत चीजडाल ही नहीं सकते थे। इसकी वजह से आप खाने को इंडस्ट्रीलाइज नहीं कर पा रहे थे।क्योंकि इंडस्ट्रीलाइज फूड में एक एक खाने में बीस बीस तरह केरासायनिक उत्पाद मिलाने पड़ते हैं. ये जो नया फूड सेफ्टी स्टैण्डर्ड बिल है इसके दो आब्जेक्टिव हैं। पहला कि यह अनसेफ फूड लाने का बिल है। मंत्रीजी ने कहा कि इससे तीसप्रतिशत तक फूड प्रोसेसिंग बढ़ जाएगी। पैकेज्ड फूड में इतना केमिकल होता है कि इसे स्वास्थ्य के लिए अच्छा खाना नहीं समझा जाता है।आठ महीने बाद क्या खाना सलामत रह पाता है?तब तक तो उसे सड़ जाना चाहिए। रासायन की वजह से वह बचा रह पाता है। ऐसे में यह कहनाकि पैकेज्ड फूड का प्रतिशत बढ़ेगा और इससे स्वास्थ्य बनेगा, कहना गलत है। दूसराइसमें जो स्टैण्डर्ड डाले गए हैं, वह स्टैण्डर्ड भारत की खाद्य सुरक्षा के खिलाफहै। इसमें किसान को घेर लिया है।
वंदना शिवा (जन्म. 5 नवंबर 1952, देहरादून, उत्तराखंड, भारत), एक दार्शनिक, पर्यावरण कार्यकर्ता, पर्यावरण संबंधी नारी अधिकारवादी एवं कई पुस्तकों की लेखिका हैं। वर्तमान में दिल्ली में स्थित, शिवा अग्रणी वैज्ञानिक और तकनीकी पत्रिकाओं में 300 से अधिक लेखों की रचनाकार हैं। उन्होंने 1978 में डॉक्टरी शोध निबंध: "हिडेन वैरिएबल्स एंड लोकैलिटी इन क्वान्टम थ्योरी" के साथ पश्चिमी ओंटेरियो विश्वविद्यालय, कनाडा से अपनी पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की।

शिवा ने 1970 के दशक के दौरान अहिंसात्मक चिपको आंदोलन में भाग लिया। इस आंदोलन ने, जिसके कुछ मुख्य प्रतिभागी महिलाएं थी, पेड़ों की कटाई को रोकने के लिए पेड़ों के चारों तरफ मानव चक्र तैयार करने की पद्धति को अपनाया। वे वैश्वीकरण के संबंध में अंतर्राष्ट्रीय फोरम की नेताओं में से एक हैं (जेरी मैंडर, एडवर्ड गोल्डस्मिथ, राल्फ नैडर, जेरेमी रिफ़कीन आदि के साथ), और वे वैश्वीकरण में परिवर्तन लाओ (अल्टर-ग्लोबलाइज़ेशन मूवमेंट) नामक वैश्विक एकजुटता आंदोलन की एक विभूति हैं। उन्होंने कई पारंपरिक प्रथाओं के ज्ञान के पक्ष में तर्क प्रस्तुत किया है, जो कि वैदिक पर्यावरण (रैन्कर प्राइम द्वारा रचित) में दिये गए उनके साक्षात्कार से स्पष्ट है जो भारत की वैदिक विरासत की ओर आकर्षित करता है।

वंदना शिवा का जन्म देहरादून की घाटी में हुआ जिनके पिता एक वन संरक्षक एवं माता प्रकृति प्रेम रखने वाली किसान थी. उनकी शिक्षा नैनीताल में सेंट मैरी स्कूल और जीसस एवं मैरी कन्वेंट, देहरादून में हुई. शिवा एक प्रशिक्षित जिम्नास्ट थी एवं भौतिकी विज्ञान में स्नातक की अपनी उपाधि प्राप्त करने के बाद, उन्होंने गुएल्फ विश्वविद्यालय (ओंटारियो, कनाडा) से "चेंजेज इन द कन्शेप्ट ऑफ पिरियडिसिटी ऑफ लाइट" शीर्षक नामक शोध-प्रबंध के साथ विज्ञान के दर्शन में स्नातकोत्तर कला की अपाधि प्राप्त की 1979 में, उन्होंने पश्चिमी ओंटारियो विश्वविद्यालय से अपने पीएच.डी. को पूरा किया और उपाधि प्राप्त की. उनके शोध-प्रबंध का शीर्षक "हिड्डेन वैरिएबल्स एंड लोकैलिटी इन क्वान्टम थ्योरी" था.बाद में उन्होंने बंगलोर में भारतीय विज्ञान संस्थान एवं भारतीय प्रबंधन संस्थान से विज्ञान, प्रौद्योगिकी एवं पर्यावरण नीति पर अंतर्विषयक अनुसंधान कार्य किया.
वंदना शिवा ने कृषि और खाद्य पदार्थ के व्यवहार एवं प्रतिमान में परिवर्तन लाने के लिए संघर्ष किया है. बौद्धिक संपदा अधिकार, जैव विविधता, जैव प्रौद्योगिकी, जैव-नीतिशास्त्र, आनुवंशिक इंजीनियरिंग उन क्षेत्रों में से हैं जिनमें शिवा ने बौद्धिक रूप से एवं कार्यकर्ता के अभियानों के माध्यम से योगदान दिया है. उन्होंने आनुवंशिक इंजीनियरिंग के विरुद्ध अभियानों के माध्यम से अफ्रीका, एशिया, लैटिन अमेरिका, आयरलैंड, स्विट्ज़रलैंड एवं ऑस्ट्रिया में हरित आंदोलन के मूलभूत संगठनों को सहायता प्रदान की है।
1982 में, उन्होंने विज्ञान, प्रौद्योगिकी एवं परिस्थिति विज्ञान के लिए अनुसंधान फाउंडेशन की स्थापना की, जिसने नवदान्य की रचना की. उनकी पुस्तक "स्टेयिंग अलाइव" ने तीसरी दुनिया की महिलाओं के संबंध में धारणा को पुन: परिभाषित करने में सहायता की. शिवा ने अंतर्राष्ट्रीय वैश्वीकरण मंच, महिलाओं के पर्यावरण एवं विकास संगठन एवं तीसरी दुनिया के नेटवर्क सहित भारत एवं विदेशों में सरकारों तथा गैर-सरकारी संगठनों के सलाहकार के रूप में भी कार्य किया है।
वंदना शिवा ने 2007 में स्टॉक एक्सचेंज ऑफ विज़न्स परियोजना में भाग लिया। वे वर्ल्ड फ्यूचर काउंसिल की एक पार्षद है।

Vandana Shiva

“Globalized industrialized food is not cheap: it is too costly for the Earth, for the farmers, for our health. The Earth can no longer carry the burden of groundwater mining, pesticide pollution, disappearance of species and destabilization of the climate. Farmers can no longer carry the burden of debt, which is inevitable in industrial farming with its high costs of production. It is incapable of producing safe, culturally appropriate, tasty, quality food. And it is incapable of producing enough food for all because it is wasteful of land, water and energy. Industrial agriculture uses ten times more energy than it produces. It is thus ten times less efficient.”
Vandana Shiva (b. November 5, 1952, Dehra Dun, Uttarakhand, India), is a philosopher, environmental activist, and eco feminist.Shiva, currently based in Delhi, has authored more than 20 books and over 500 papers  in leading scientific and technical journals.She was trained as a physicist and received her Ph.D. in physics from the University of Western Ontario, Canada, in 1978 with the doctoral dissertation "Hidden variables and locality in quantum theory."
She is one of the leaders and board members of the International Forum on Globalization, (along with Jerry Mander, Edward Goldsmith, Ralph Nader, Jeremy Rifkin, et al.), and a figure of the global solidarity movement known as the alter-globalization movement. She has argued for the wisdom of many traditional practices, as is evident from her interview in the book Vedic Ecology (by Ranchor Prime) that draws upon India's Vedic heritage. She is a member of the scientific committee of the Fundacion IDEAS, Spain's Socialist Party's think tank.
She was awarded the Right Livelihood Award in 1993.

Vandana Shiva was born in the valley of Dehradun, to a father who was the conservator of forests and a farmer mother with a love for nature. She was educated at St Mary's School in Nainital, and at the Convent of Jesus and Mary, Dehradun.[5] After receiving her bachelors degree in physics, she pursued a M.A. in the philosophy of science at the University of Guelph (Ontario, Canada), with a thesis entitled "Changes in the concept of periodicity of light". In 1979, she completed and received her Ph.D. in Philosophy at the University of Western Ontario. Her thesis was about the philosophical underpinnings of quantum mechanics was titled "Hidden Variables and locality in Quantum Theory".[4][6] She later went on to interdisciplinary research in science, technology and environmental policy, at the Indian Institute of Science and the Indian Institute of Management in Bangalore.

Vandana Shiva has fought for changes in the practice and paradigms of agriculture and food. Intellectual property rights, biodiversity, biotechnology, bioethics, genetic engineering are among the fields where Shiva has contributed intellectually and through activist campaigns. She has assisted grassroots organizations of the Green movement in Africa, Asia, Latin America, Ireland, Switzerland, and Austria with campaigns against genetic engineering. In 1982, she founded the Research Foundation for Science, Technology and Ecology, which led to the creation of Navdanya in 1991, a national movement to protect the diversity and integrity of living resources, especially native seed, the promotion of organic farming and fair trade. For last two decades Navdanya has worked with local communities and organizations serving many men and women farmers. Navdanya’s efforts have resulted in conservation of more than 2000 rice varieties from all over the country and have established 34 seed banks in 13 states across the country. More than 70,000 farmers are primary members of Navdanya. In 2004 Dr Shiva started Bija Vidyapeeth, an international college for sustainable living in Doon Valley, in collaboration with Schumacher College, U.K.

In the area of IPRs (Intellectual Property Rights) and Biodiversity, Dr. Shiva and her team at the Research Foundation for Science, Technology and Ecology successfully challenged the biopiracy of Neem, Basmati and Wheat. Besides her activism, she has also served on expert groups of government on Biodiversity and IPR legislation.
Her first book, "Staying Alive" (1988) helped redefine perceptions of third world women. In 1990 she wrote a report for the FAO on Women and Agriculture entitled, “Most Farmers in India are Women”. She founded the gender unit at the International Centre for Mountain Development (ICIMOD) in Kathmandu and was a founding Board Member of the Women Environment and Development Organisation (WEDO)
Shiva has also served as an adviser to governments in India and abroad as well as non governmental organisations, including the International Forum on Globalization, the Women's Environment & Development Organization and the Third World Network. Dr. Shiva chairs the Commission on the Future of Food set up by the Region of Tuscany in Italy and is a member of the Scientific Committee which advises President Zapatero of Spain. Shiva is a member of the Steering Committee of the Indian People’s Campaign against WTO. She is a councillor of the World Future Council. Dr Shiva serves on Government of India Committees on Organic Farming. Vandana Shiva participated in the Stock Exchange of Visions project in 2007.

Time Magazine identified Dr. Shiva as an environmental “hero” in 2003 and Asia Week has called her one of the five most powerful communicators of Asia.
Vandana Shiva is working on a 3 year project with the Government of Bhutan, at the invitation of the Prime Minister Jigme Thinley, advising the Government on how to achieve their objective of becoming an Organic Sovereign country (the first fully 100% organic country).
Vandana Shiva plays a major role in the global Ecofeminist movement. According to her article Empowering Women, Shiva suggests that a more sustainable and productive approach to agriculture can be achieved through reinstating a system of farming in India that is more centered around engaging women. She advocates against the prevalent "patriarchal logic of exclusion," claiming that a woman-focused system would change the current system in an extremely positive manner.

In this way, Indian and global food security, can only benefit from a focus on empowering women through integrating them into the agricultural system.


Sunday, October 9, 2011

Dr. (Capt.) Lakshmi Sahgal......डॉ (केप्टन) लक्ष्मी सहगल.




Dr. (Capt.) Lakshmi Sahgal (INA) 

(Born : 24 Oct, 1914-23 jul 2012)
The Left's Candidate For President
Padma Vibhushan 1988


डॉक्टर (केप्टन) लक्ष्मी सहगल (जन्म : 24 अक्टूबर, 1914 -23 जुलाई २०१२ )

आजाद हिन्द फौज की 'रानी लक्ष्मी रेजिमेन्ट' की कमाण्डर तथा 'आजाद हिन्द सरकार' में महिला मामलों की मंत्री
भारत के राष्ट्रपति की उम्मीदवार
पद्मविभूषण १९८८

वीरता और मानव सेवा की प्रतीक...कर्नल लक्ष्मी सहगल भारत की उन महान महिलाओं में से एक हैं जो बहादुरी और सेवा भावना दोनों की अद्भुत मिसाल हैं और जो कई मामलों में भारत के इतिहास की प्रथम महिला के रूप में जानी गयी. कैप्टन लक्ष्मी सहगल भारत की एक शेर दिल महिला है .उन्होंने नेताजी सुभाष चंद्र बोस द्वारा स्थापित भारतीय राष्ट्रीय सेना (आईएनए) के लिए बन्दूक उठाई और भारत की स्वतंत्रता को पाने के लिए हो रहे संघर्ष में एक शेरनी की तरह नेतृत्व किया था .वे बचपन से ही राष्ट्रवादी आंदोलन से प्रभावित हो गई थीं और जब महात्मा गाँधी ने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का आंदोलन छेड़ा तो लक्ष्मी ने उसमे हिस्सा लिया.
आजाद हिंद फ़ौज में महिला सैनिकों के महारानी लक्ष्मी बाई रेजिमेंट की २ जुलाई १९४३ को वह नेता जी सुभाष चन्द्र बोस द्वारा कर्नल बनाई गयी. इस तरह नियमित फ़ौज में कर्नल का पद पाने वाली एशिया की पहली महिला थी. अर्जी हुकूमते आजाद हिंद सरकार में महिला मामलों की मंत्री बनने वाली कर्नल लक्ष्मी प्रथम महिला थी तो आज़ादी के बाद राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ने वाली प्रथम महिला प्रत्याशी भी कर्नल लक्ष्मी सहगल ही रही. यह एक विडंबना ही है कि जिन वामपंथी पार्टियों ने द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान का साथ देने के लिए सुभाष चंद्र बोस की आलोचना की, वे ही लक्ष्मी सहगल को भारत के राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाया। लेकिन वामपंथी राजनीति की ओर लक्ष्मी सहगल का झुकाव 1971 के बाद से बढ़ने लगा था। वे अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति की संस्थापक सदस्यों में से हैं.

समाज सेवा और देश के लिए कुछ करने की भावना इन्हें अपने परिवार से विरासत में मिली थी. पिता डॉक्टर एस स्वामीनाथन मद्रास हाई कोर्ट में मशहूर वकील थे और माँ ए. वी. अम्माकुट्टी समाज सेवा के कारन पुरे मद्रास में अम्मुकुट्टी की नाम से जानी जाती थी. समाज सेवा को समर्पित इस परिवार में ही २४ अक्टूबर १९१४ को लक्ष्मी स्वामीनाथन का जन्म हुआ.

गरीबो की सेवा करना लक्ष्मी सहगल का जीवन धर्म रहा इसलिए डाक्टरी को इन्होने समाज सेवा का माध्यम बनाया. १९३८ में मद्रास मेडिकल कॉलेज से इन्होने एम् बी बी एस की डिग्री और गायेनोकोलोगी में डिप्लोमा लिया और सन १९४० में भारतीय मजदूरों की सेवा करने के उद्देश्य से ये सिंगापुर चली गयी. यहाँ आकर इन्होने अपना क्लिनिक खोला. और थोड़े ही समय में भारतीय समाज में काफी लोकप्रिय हो गयी.

स्थानीय इंडियन इंडीपेनडेंस लीग की आप सक्रिय सदस्य बनी और इस दौरान इन्होने ब्रिटिश फौज के भारतीय युद्ध बंदियों की काफी सेवा की. यह वह दौर था जब ब्रिटिश सेना को जापानी सेना के आगे समर्पण करना पड़ा था. इन भारतीय युद्ध बंदियों में अपने देश की आजादी के लिए अंग्रेजो से लड़ने का जज्बा जब लक्ष्मी सहगल ने देखा तो जब नेता जी सुभाष चन्द्र बोस सिंगापुर की एतेहासिक जनसभा को संबोधित करने आये तो लक्ष्मी सहगल ने व्यक्तिगत रूप से नेता जी से मिलकर युद्धबंदियों से अवगत कराया. इतना ही नहीं रबर कंपनीयों में काम करने वाले भारतीय मजदूरों की पत्नियों को भी आजादी की जंग में शामिल करने के लिए वो तैयार कर चुकी थी. नेता जी ने न केवल युद्धबंदियों को आज़ाद हिंद फौज में शामिल कर लिया बल्कि महिला सैनिकों के लिए भी एक अलग रेजिमेंट की स्थापना कर दी. रानी झासी रेजिमेंट के कर्नल का पद डाक्टर लक्ष्मी सहगल को ही दिया गया .

तीन महीने की सैनिक ट्रेनिंग के बाद भारतीय मजदूरों की पत्नियां प्रशिक्षित सैनिक बन चुकी थी. इस रेजिमेंट में एक हज़ार महिला सैनिक और २०० नर्से शामिल थी. डाक्टर लक्ष्मी सहगल जहाँ सैनिकों की सेवा करके डाक्टरी का फ़र्ज़ निभा रही थी वही मोर्चे पर लड़कर एक बहादुर सिपाही की भूमिका भी अदा कर रही थी. नेता जी ने जब इनकी कार्य कुशलता देखी तो अर्जी हुकूमते आज़ाद हिंद सरकार में महिला मामलों का मंत्री इन्हें बना दिया.

विमान दुर्घटना में सुभाष चन्द्र बोस की मृत्यु के बाद आज़ाद हिंद सरकार भंग हो गयी और ४ मार्च १९४६ को अंग्रेजो ने लक्ष्मी सहगल को गिरफ्तार कर लिया, गिरफ्तारी के बाद जब उन्हें भारत लाया गया तो पूरे देश की जनता ने इस वीर महिला का भव्य स्वागत किया. अखबारों ने विशेषांक निकले और जगह जगह स्वागत सभाए हुई. इनकी लोकप्रियता को देखकर अंग्रेजो को इन्हें रिहा करना पड़ा. इनके पति कर्नल प्रेम कुमार सहगल भी स्वतंत्रता सैनिकों के साथ लाल किले में कैद थे, अंग्रेजो को इन्हें भी रिहा करना पड़ा.

पति पत्नी ने कानपुर आकर अपना क्लिनिक खोला- डाक्टर लक्ष्मी सहगल क्लिनिक एंड मैटरनिटी होम, यह अस्पताल आज गरीबों का तीर्थ बन चुका है. आज भी ठीक दस बजे क्लिनिक में मौजूद आँखे डाक्टर लक्ष्मी सहगल को ही ढूँढती है.
भारत विभाजन के समय पाकिस्तान से जितने शरणार्थी कानपुर आये डाक्टर लक्ष्मी सहगल ने तन मन धन से उनकी सेवा की. सन २००२ में जब बंगलादेश का विभाजन हुआ तब कलकत्ता जाकर शरणार्थियों के लिए शिविर लगाये. डाक्टरी के माध्यम से समाज सेवा करना ही इनका संकल्प है सामाजिक न्याय में इनकी आस्था इतनी गहरी है की एक बार २ शादी के कार्ड १ ही दिन के लिए इनके पास पहुचाये गए. एक कार्ड गरीब का था और दूसरा धनवान व्यक्ती का. डाक्टर लक्ष्मी सहगल गरीब के ही घर गए. कहा, अमीर के घर जाने को तो सब लालायित रहते है गरीब के घर कौन जायेगा ? स्वतंत्रता संघर्ष और समाज सेवा के क्षेत्र में इनकी उलेखनीय सेवाओ को देखते हुए सन १९९८ में भारत के राष्ट्रपति द्वारा इन्हें पद्मविभूषण से अलंकृत किया गया. आज भी 15\241,सिविल लाइन आज भी स्वंत्रता संग्राम और मानव सेवा का प्रेरणादायक जीवंत स्मारक बनकर आने वाली पीढियों के लिए एक अद्भुत प्रेरणा का केंद्र बना हुआ है.

अफसोस की बात है कि आजादी के ६ दशकों के बाद भी , अपने जीवन की शरद ऋतु में, उनमे निराशा की भावना है. उनके अनुसार आज़ाद भारत में आईएनए को उसका वो स्थान नहीं मिला जो होना चाहिए था .वो आगे बताती हैं कि नेताजी ने हमेशा स्वतंत्रता के तीन भागों की बात की थी:. राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक जिसमे पहली हमने हासिल की, अभी दो तरह की स्वतंत्रता अभी बाकी है , महिलाओं की स्थिति अभी भी दुर्भाग्यपूर्ण है सामाजिक बुराइयों बेरोकटोक जारी है जाति व्यवस्था अभी भी पनपती है .बाल विवाह अभी भी जगह हो रहे हैं और दहेज हत्या अभी भी हो रही हैं. जो सामाजिक परिवर्तन के सपने नेताजी ने देखे थे वो आज के उपभोक्तावाद के युग में भोगिवादी सामग्री को इकट्ठा करने की चाह के नीचे दब गए हैं कुचल गए हैं
युग दधीचि देहदान अभियान से जुड कर सुभाष चंद्र बोस की अनन्य सहयोगी कैप्टन डा. लक्ष्मी सहगल ने नेत्रदान व देहदान संकल्प लिया और जीवन के साथ भी, जीवन के बाद भी देश व समाज सेवा की भावना को चरितार्थ कर दिया .
डॉक्टर लक्ष्मी सहगल की बेटी सुभाषिनी अली जिसका नाम उन्होंने अपने प्रिय नेता सुभाष चंद्र जी के नाम पर रखा था 1989 में कानपुर से मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की सांसद भी रहीं
धार्मिक कट्टरता, पुरुष दुराग्रह, जाति और आर्थिक शोषण के मध्य से अपना रास्ता बनाते हुए उन्होंने सभी भारतीयों के लिए एकता और समानता के आईएनए के जीवंत आदर्शों को रखने के काम जारी रखा . उनकी आजादी के लिए यह तड़प आज भी जीवित है. और वो आग अभी भी उनके अंदर जल रही है .


Dr. (Capt.) Lakshmi Sahgal (INA)

Captain Laxmi Sehgal is one of the lion hearted women, India ever had. She picked up the Gun for the Indian National Army (INA) founded by Netaji Subash Chandra Bose and led it like a tigress for the struggle for Indian freedom.
Lakshmi Sahgal was born Lakshmi Swaminadhan on 24.10.l914 in what was then still called Madras. Her father was Dr. S. Swaminadhan, a brilliant and leading lawyer practising criminal law at the Madras High Court. Her mother was A.V. Ammukutty, a social worker, freedom fighter and tireless campaigner for women's rights who successfully contested elections to the Madras Municipal Corporation, the Constituent Assembly, the Lok Sabha and Rajya Sabha. She also served as National President of the All India Women's Conference.
As a young girl, Lakshmi participated enthusiastically in nationalist programmes of burning of foreign goods, including her own clothes and toys and picketting of liquor-vends. She decided to study medicine not from the point of view of embarking upon a successful career but because she wanted to be of service to the poor, especially to poor women. As a result, she received the MBBS degree from Madras Medical College in l938. A year later, she received her diploma in gynecology and obstetrics.
In l940, Lakshmi left Madras for Singapore. Here she quickly established a clinic where the poorest of the poor, especially migrant Indian labour, could receive medical treatment. Not only did she establish herself as a successful, compassionate and extremely competent doctor, but she played an active role in the India Independence League which contributed greatly to the freedom movement in India.
In l942 came the historic surrender of Singapore by the British colonial power to the Japanese. Lakshmi was kept extremely busy tending to the many casualties and injuries that resulted from skirmishes. She also came in contact with many of the India POWs who were deliberating over the Japanese proposal to form an Indian army of liberation. She was extremely enthusiastic about this possibility and argued strongly in its favour. As a result, she was very much part of the deliberations that finally resulted in the formation of the INA under Gen. Mohan Singh.
Events moved very fast with the arrival of Subhas Chandra Bose in Singapore on 2nd July, l943. In the next few days, at all his public meetings, Netaji, as he was popularly known as, spoke of his determination to raise a women’s regiment, the Rani of Jhansi regiment, which would also fight for Indian independence and make it complete. On the 5th of July he spoke to Shri Yellappa, and enquired whether there was any Indian woman in Singapore who would be suitable for the task of leading such a regiment. Shri Menon immediately suggested Lakshmi’s name. Netaji insisted on meeting her immediately and she was brought to meet him quite late the same night. As soon as he put his proposal to her, she accepted it without a moment’s hesitation and, the very next day, she closed her clinic and began preparations for the formation of the Rani of Jhansi Regiment of the INA.
These preparations were underway very soon and, in a short time, a well-trained fighting force of women recruits took shape. On 21st October, l943, when the Provisional Government of Azad Hind was announced, Lakshmi was the sole woman member of its Cabinet.
The Rani of Jhansi Regiment saw active duty on the front. Lakshmi who was given the rank of Colonel, although in the popular imagination she remained ‘Captain Lakshmi’ was active both militarily and on the medical front. She played a heroic role not only in the fighting but during the terrible days that INA personnel were hunted by the victorious British troops and saved many lives because of her courage and devotion. She was finally captured and brought to India on 4th March, l946 when she received a heroine’s welcome. The British authorities realised that keeping her a prisoner would be counter-productive and she was released.
After her release, Capt. Lakshmi campaigned tirelessly for the release and rehabilitation of imprisoned and de-mobbed INA personnel and for the freedom of India. She travelled the length and breadth of the country and was able to collect huge funds for the INA soldiers and also mobilise people against the colonial power.
After the release of the prisoners, including Col. Prem Kumar Sahgal, from the Red Fort the campaign for freedom continued. In March 1947, Col. Sahgal and Capt. Lakshmi were married in Lahore (Col. Sahgal was the son of Justice Achhru Ram Sahgal, a member of the Punjab High Court Bench who was one of the judges in the Gandhi Murder Case). After their marriage, they settled down in Kanpur.
In Kanpur, Lakshmi plunged into her medical work almost immediately because the influx of refugees started even before August, l947 when it became a flood. She worked tirelessly among them for several years. Later on she established a small maternity home in a hired premise where it continues till today. Her compassion and service to the poor have become legendary in the city.
In l971, when huge numbers of refugees came from what was East Pakistan into West Bengal, Lakshmi worked at a camp in Bongaon for several months.
After this, she became very active in left politics and in, first, the trade union and, then, the women's movement although she never neglected her medical work. When the All India Democratic Women's Association was formed in l981, she became Vice-President of the largest women's organisation in the country and has been actively involved in its activities, campaigns and struggles ever since.
In October, l984, when anti-Sikh riots broke out in the city in the wake of Smt. Indira Gandhi’s assassination, she came out on the streets in defence of Sikh families and shops near her clinic and did not allow any of them to be harmed.
In l998, she was awarded the Padma Vibhushan by the President of India
Today, at 87, she still leaves for her maternity home at 9.00 every morning, seven days a week and works till late in the afternoon. Adulation and awards mean very little to her. Her unassuming manners and modesty are a source of amazement and inspiration. Her untiring and undying commitment to humanity and its service are truly exceptional.
Her daughter Subhashini Ali, who has been named after her hero Subhas, also works for the rights of women through the All India Democratic Women's Association. AIDWA is an organisation which Sahgal has been involved with for the last two-and-a-half decades. Her mother has certain striking traits of which Subhashini, a former member of Parliament from Kanpur, is proud.
Inching her way through religious bigotry, male chauvinism, caste and economic exploitation, she continues to keep alive the INA's ideals of unity and equality for all Indians. Her yearning for freedom lives on. The fire still burns.

Sunday, September 25, 2011

Shabnam Ramaswamy.......शबनम रामास्वामी


Shabnam Ramaswamy

founder :NGO- Street Survivor
social worker .working for the downtrodden and street children .

शबनम रामास्वामी
Street Survivor NGO की संस्थापक
सामाजिक कार्यकर्ता – निचले तबके और सड़क पर रहने वाले बच्चो के लिए कार्य

पश्चिम बंगाल के अंदरूनी हिस्से मुर्शिदाबाद के एक गांव कटना में जन्मी शबनम को उनके पिता की सेना में नौकरी करने की वजह से कोलकाता के अभिजात वर्ग के स्कूल La Martinere में अध्ययन करने का मौका मिला. उनकी शादी 16 साल से भी कम उम्र में ही एक धनी पर 32 साल के व्यक्ति से कर दी गयी .उसका पति उसे हमेशा मरता-पीटता रहता था उनके दो बच्चे थे पर उसका पति उसे बहुत बार रात को घर से बाहर फेंक देता था उसे लगता था कि उसके बच्चो की शक्ल उस से नहीं मिलती .इस से तंग आकार 24 साल की उम्र में ही एक रात को उसने अपने बेटे के साथ अपना घर छोड़ दिया.
दो महीने के लिए, वह सियालदह स्टेशन के यार्ड में खड़ी एक रेल की बोगी में रही , जिसके बाद उन्होंने एक नौकरी की तलाश की जिस से वो गरीबी और फटेहाल जिंदगी से बाहर आये और काम करे . उनकी किस्मत ने फिर उनका साथ दिया और एक दशक के भीतर, वह एक सफल इंटीरियर डेकोरेटर के रूप में स्थापित हो गयी उसके पश्चात उन्होंने तलाक के लिए आवेदन किया जो उन्हें मिल गया साथ ही उन्हें बच्चों को पालने का आधिकार भी मिल गया . अब वो इस जीवन से थक गयी थी उन्हें लगता था कि वो किसी और काम के लिए जन्मी हैं उन्हें जरूरतमंदों कि मदद करणी हैं इसलिए उन्होंने सामाजिक कार्य करना शुरू कर दिया . उन्हें बड़ा अजीब लगा कि एक व्यवसायी उन्होंने के बाद उसी शहर में अब वो सामाजिक कार्य शुरू कर रही हैं..इसलिए उन्होंने कलकत्ता छोड़ने का निर्णय ले लिया और ६ शहरो का चुनाव किया जहा वो अपना सामाजिक कार्य कर सकती थी . शबनम ने कागज के चिट पर छह शहरों के नाम लिखे और एक डब्बे में डाल दिए फिर अपनी बेटी से एक चिट निकालने के लिए बोला . जो चिट् निकली वो दिल्ली की थी इसको किस्मत का फैसला मान वो अपने परिवार के साथ दिल्ली चली आई .
दिल्ली आकार उन्होंने मीरा नायर की संस्था सलाम बालक के लिए काम करना शुरू कर दिया .यह संस्था दिल्ली रेलवे स्टेशन पर उन बच्चो के लिए काम करती थी जो घर से भाग आये थे .यहा पर उनकी मुलाकात एक वरिष्ठ पत्रकार और छोटी फिल्म के निर्माता जुगनू रामास्वामी से हुई जिन्होंने उनके काम पर एक फिल्म बनाने की उनसे बात की .जुगनू ने ना केवल फिल्म बनायी उन्होंने शबनम के साथ शादी भी कर ली .फिल्म पुरी होने के बाद दिल्ली में ही शबनम ने सड़क के बच्चो के लिए एक स्कूल की स्थापना की जिसका नाम उन्होंने जागृति रखा .अधिकृत जगह पर ना होने की वजह से सरकार ने उनका यह स्कूल तोड़ दिया .इसके बाद वो पुराने कार्य क्षेत्र पश्चिमी बंगाल के कटना जिले में आ गयी यहाँ उन्होंने एक बार फिर जागृति नाम से एक मोडर्न एवं इंग्लिश माध्यम वाला स्कूल बनाने का फैसला किया जिसमे ग्रामीण बच्चे पढ़ सके और अपने को दूसरे साधन संपन्न बच्चो से अलग न समझे . साल २००५ में उन्होंने यह काम शुरू कर दिया. वो कटना वापिस तो आ गयी. पर उनको यहाँ बहुत विरोध भी झेलना पड़ा. क्योकि यह इलाका अच्छे इलाको में नहीं माना जाता था. लूट चोरी अपहरण आदि की घटनाये यहाँ बहुत होती थी. जब यहाँ के लोगो को पता चला कि शबनम स्कूल खोलना चाहती हैं और समाज कि भलाई के लिए कार्य करना चाहती हैं तो इनके यहाँ बहुत दुश्मन बन गए इन पर बम्ब से हमला किया गया ,जिसमे दोनों पति-पत्नी घायल भी हुए और इनके घर को काफी क्षति भी पहुची .पर इन्होने हार नहीं मानी.और अपने काम में लगी रही. स्कूल बन चुका था उसमे काम करने वाले लोगो की तलाश हो रही थी. इसके लिए उन्होंने वही रहने वाले उन असामाजिक तत्वों में से कुछ लोगो को काम पर रखा जो काम करना चाहते थे. और खुद को सुधारना चाहते थे .उनका घर भी उस तरह की औरतो के लिए आश्रय स्थल बन चुका था जिनके पति उन्हें मारते-पिटते थे .इस वजह से बहुत लोग उनके दुश्मन भी बनते जा रहे थे .इस दुश्मनी की वजह से ही उनके पति जुगनू की मौत भी हो गयी. पर पुलिस के अनुसार उन्हें बताया गया कि उनकी मौत दिल का दौरा पड़ने से हुयी हैं पर वो जानती थी कि जुगनू को उनके दुश्मनों ने जहर दिया है. वो टूट चुकी थी . जुगनू के शव को लेकर दिल्ली आई और उनका क्रियाकर्म किया वो अब दिल्ली में अपने बच्चो के साथ रह सकती थी पर सामाजिक कार्य करने की उनकी चाह की वजह से उन्होंने फिर से सारी शक्ति समेटी और वापिस कटना चली आई. और यहाँ फिर से अपना काम शुरू कर दिया.
शबनम के अनुसार- मैं हमेशा से बच्चों को पढ़ाने के लिए इस गांव में अंग्रेजी माध्यम के एक स्कूल का सपना देखती थी। मैं चाहती थी कि वे अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाई करें ताकि वे अपने शहरी साथियों से पीछे न रहें। कभी अपराधियों, गरीबी और बेरोजगारी के लिए जाना जाने वाला मुर्शिदाबाद जिले का कटना गांव अब पूर्व अपराधियों को काम देने वाले स्कूल और एक कढ़ाई सहकारी समिति के लिए प्रसिद्ध है। रामास्वामी ही कढ़ाई सहकारी समिति भी चलाती हैं और इसमें 1,400 महिलाएं काम करती हैं।
कोलकाता के ला मार्टिनियर फॉर गर्ल्स की पूर्व छात्रा रामास्वामी कहती हैं कि इन इलाकों में बहुत से अपराधी हैं लेकिन वे जन्म से अपराधी नहीं थे। उन्होंने गरीबी के कारण अपराध को अपनाया था। जब उन्हें स्कूल में नौकरी मिली तो उन्होंने अपराध करना बंद कर दिया। उन्होंने बताया कि हमने जो लोग पहले अपराधी थे उन्हें मालियों, रसोइयों और वाहन चालकों की नौकरी दी लेकिन अब वे आपके और मेरे जैसे ही हैं।
शबनम रामास्वामी स्कूल चलाने के लिए धन इकट्ठा करने को इलाके की ही 1,400 से ज्यादा महिलाओं के साथ कटना कढ़ाई सहकारी केंद्र चलाती हैं। इससे होने वाली कमाई स्कूल के विकास कार्यों पर खर्च की जाती है। स्कूल गरीब बच्चों को निशुल्क शिक्षा देता है। यहां के 460 से ज्यादा छात्रों में से 30 प्रतिशत छात्र इसी तरह के हैं।
जागृति पब्लिक स्कूल में केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) का पाठ्यक्रम चलता है और यहां सातवीं तक की कक्षाएं लगती हैं। वर्ष 2005 में जब स्कूल की शुरुआत हुई थी, उस समय यहां केवल कक्षा दो तक की ही पढ़ाई होती थी। रामास्वामी ने बताया कि अगले साल स्कूल आठवीं कक्षा तक हो जाएगा। उन्होंने कहा कि मुझे १ साल में सीबीएसई से सम्बद्धता मिलने की उम्मीद थी पर २ साल हो गए उन्हें पंजीकृत नहीं किया गया इस कार्य के लिए भी सरकारी अफसर ने उनसे १,००,००० रूपये की रिश्वत मांगी और यह बात उन्होंने दिल्ली में अपने सम्मान समोराह में भाषण देते हुए कही साथ ही यह भी कहा कि अगर कोई इंसान यहाँ ऐसा है जो इन बच्चो के लिए हमारी मदद कर सकता है और उन लोगो से बात कर सकता है तो आगे आये.तब एक अफसर ने उस समोराह के बाद उनसे संपर्क किया और उनका यह कार्य करवाया. जज्बा उबका हमेशा काबिल-ए-तारीफ रहा और वो आज भी ऐसे बच्चो के लिए कार्य कर रही हैं.
Shabnam Ramaswamy,
Born in a village in the interiors of West Bengal's Murshidabad, Shabnam, got to study in Kolkata's elite La Martinere School, thanks to her father's Army job. At 16, she was married off to a wealthy 32-year-old who would beat her to a pulp. After bearing him two kids, her husband would regularly throw her out of the house at night because he felt their son didn't look like him. One night, at 24, she left home with her son.
For two months, she lived in a shanty at Sealdah station after which she got herself a job and worked her way out of poverty. Within a decade, she succeeded in her job as an interior decorator, got a divorce and won custody of her children. But she began to tire of high-society life and trained her sights on social work. "I decided to leave Kolkata, as it was awkward going from businesswoman to social worker in the very same city,'' she said. She wrote down the names of six cities on chits of paper and asked her daughter to pick a chit. The girl picked Delhi, so that's where the family went.
Shabnam joined Mira Nair's Salaam Balak, where she befriended run aways at Delhi station. A senior journalist, Jugnu Ramaswamy, approached her with the intention of making a film on her work. He not only made the film, but married her too. The Ramaswamys set up a school for street kids in Delhi, called Jagriti. After the school was demolished by the Delhi government, they headed to Katna in West Bengal, where they decided to set up a state-of-the-art school with the same name for rural kids. In 2005, just before the school began.
Shabnam can still remember the day - it was the 29th April 2006th Jugnu sat down at her feet, and began to massage her feet. "He always did when he wanted something from me." This time it was the school. The day before the construction of the building had been completed, and now it would be a question, fill them with life - hire teachers, receiving applications for school children, seek state permits. "I can build a school, I can not do it," said her husband "you have to do that."
Shabnam refused. She had enough to do their work. The pair were five years earlier, came from Delhi to Katna. Both had attended elite schools there, he was documentary filmmaker, she founded an NGO for street children, Street Survivors India '. But they knew that the great challenges of their lives outside the big city, lay in the poverty and backwardness of India's villages. They decided to move to Katna, Shabnam's home village in the northeastern tip of India, near the border with Bangladesh.
If they had thought they would be welcomed with open arms, they were mistaken. They brought unrest to the village, they disturbed the local power structure, dominated by the control by the Communist Party, the most important items - dominated - teachers, village council. The same was true for Shabnam family, a divided family, with close ties to the Communist Party and the mullah. The network of party, family, clergy made sure that state aid funds were diverted, that domestic violence was condoned, that the school because it was to pay salaries instead of giving lessons. When they wanted to establish its own school, came the first warning shot: a bomb exploded in front of her house, and Shabnam Jugnu were injured, destroyed her house half. They did not go to the police, and they are not buckled. When (highly indebted and with her uncle) a few weeks after the assassin, a landless peasant village of repentance before Shabnam threw on the floor, she placed him as a chauffeur. Her house became a refuge for women who were thrown from their husbands out of the house or left behind with the children. She went to the police, in court, fought welfare benefits led estranged couple back together, argued with the mullahs. Despite opposition from the Communist Party-appointed administrator of the district judge them to a kind of peace.
Now the school stood before the opening, but Shabnam wanted their women's group - not to give up - Stree Shakti ',' woman power '. Jugnu did not let up, and while massaging the feet and their resistance was always soft. Finally she agreed, "if you pay me this summer, a common holiday travel". Three days later, Jugnu was dead, the official cause of death was heart failure. But she knew what she had done this: Her husband had been poisoned. And they knew who had committed the crime - the brother of her mother, who had in turn violated the daughter when she was pulled into the village, and indeed was privy to. Lastly Jugnu had drawn the school logo - a dove in flight - with the Latin motto 'Fortitudine Vincimus'
Instead of depositing a murder complaint, Shabnam took the body back to Delhi in order to cremate there and the ashes to scatter according Jugnus desire in the winds. Everything had gone according to plan as far as the poisoner, and now they would turn their backs to the village and stay with the two children in Delhi. But Shabnam returned, took over the Jagriti School, as if nothing had happened as an unfortunate death in the family. It began with five classes, then eight, and by the next school year begins, the upper stage; Jagriti is now one of 340 students. Instead of competing with the public schools, Shabnam taught in neighboring villages, Study Centres' one, where students receive tutoring village. With their work, Stree Shakti 'forced them into one floor of the school building something like a refuge for women namedns, Dimini' - Caring - to set up.
They soon saw that this was not enough. Violate widowed, or on the run from violence needed that one chance, their livelihood and their children to deny. Shabnam hit upon the idea of the old local tradition of manufacturing to revive Kantha' new cloths. There is one, arte povera, "the superimposition of old discharged Saristoffen soft transparent muslin, which breaks down the worn places and shine through the beautiful patterns and colors. Are held together by two or three layers of geometric patterns or run the embroidery and cross stitch with colored thread. Kantha is one of these little wonders of India, which wraps the murky landscape of poverty in bright colors.
Shabnam Kanthas sold to her friends in Delhi and Calcutta, she grabbed it and drove it into bales of NGO bazaar in the big cities. Mothers of school children were aware of the work of the, also began to manufacture at home Kanthas. Shabnam had to buy fabrics and yarn by the hand, organize training courses, invited designers to Katna to show women the new pattern. Today there are approximately 1440 women from 65 villages, members of an NGO. They are members in more than one sense. For several months each of them co-owner of, Katna's Kantha Pvt.Ltd. '. The company also acts as a co-operative bank, in which the shareholders can get small loans, either to buy a sewing machine to host the wedding of the daughter, or money for drugs and doctor to have.
Received last November, Street Survivors India 'in Delhi a prize for their innovative activity. It was the first time that the broader public Shabnam Ramaswamy heard. In her speech, she was not satisfied with words of thanks: "I do not go on," she confessed before the shocked audience. "For two years I am waiting for the certification of the Jagriti School. I have had to pay 100,000 rupees in bribes in return for that otherwise the the school will close. If someone is sitting here in the auditorium, which has a hot line to Calcutta - then please, help! ". A senior government official came up to her afterward and offered to intervene. and then he really helped her to get that certification.
when someone asked her why she had not the murderer of her husband brought to justice. "What would it have availed?" She asked. "The village, my family, the murder accomplices had me for the rest of life met with hatred. I knew if I wanted to stay here, wanted to keep working, I had to forgive them. I found it less difficult than I had believed, perhaps because Jugnu would have done the same. "

Friday, September 16, 2011

Gaura Devi..............गौरा देवी



Gaura Devi (1925-91)
One of the founder of chipko movement
Awrded with “vriksh-mitra”

गौरा देवी(1925-91)

चिपको आन्दोलन की जननी
प्रथम महिला वृक्षमित्र के पुरस्कार से नवाजी गई


“वन हमारी माँ के घर की तरह है. चाहे जो भी हो जाये हम इसकी रक्षा करेंगे, वन से हमें जड़ी-बूटी, सब्जी-फल, और लकड़ी मिलती है, जंगल काटोगे तो बाढ़ आयेगी, हमारा सब कुछ बह जायेंगा” यह नारा देकर गांधीजी के सत्याग्रह के बाद , चमोली के इस गृहिणी ने , राज्य के द्वारा किये जा रहे उत्पीड़न के खिलाफ लड़ाई में जो अगला हथियार, दिया उसका नाम था - चिपको आंदोलन. . पहाडो पर रहने वाली महिलाए अच्छी तरह से जानती है कि कृषि प्रधान अर्थ व्यवस्था में इन जंगलो का क्या महत्त्व है. और उसको बचाना उनका धर्म है .

पेड़ों को कटने से बचाने के लिये शुरु हुआ चिपको उत्तराखण्ड को जन आन्दोलनों की धरती भी कहा जा सकता है, उत्तराखण्ड के लोग हमेशा से ही अपने जल-जंगल, जमीन और बुनियादी हक-हकूकों के लिय और उनकी रक्षा के लिये हमेशा से ही जागरुक रहे हैं। चाहे 1921 का कुली बेगार आन्दोलन 1930 का तिलाड़ी आन्दोलन हो या 1974 का चिपको आन्दोलन, या 1984 का नशा नहीं रोजगार दो आन्दोलन या 1994 का उत्तराखण्ड राज्य प्राप्ति आन्दोलन, अपने हक-हकूकों के लिये उत्तराखण्ड की जनता और खास तौर पर मातृ शक्ति ने आन्दोलन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
1974 में शुरु हुये विश्व विख्यात चिपको आन्दोलन की जननी, प्रणेता श्रीमती गौरा देवी जी की, जो चिपको वूमन के नाम से मशहूर हैं। 1925 में चमोली जिले के लाता गांव के एक मरछिया परिवार में श्री नारायण सिंह के घर में इनका जन्म हुआ था। गौरा देवी ने कक्षा पांच तक की शिक्षा भी ग्रहण की थी, जो बाद में उनके अदम्य साहस और उच्च विचारों का सम्बल बनी। मात्र ११ साल की उम्र में इनका विवाह रैंणी गांव के मेहरबान सिंह से हुआ, रैंणी भोटिया (तोलछा) का स्थायी आवासीय गांव था, ये लोग अपनी गुजर-बसर के लिये पशुपालन, ऊनी कारोबार और खेती-बाड़ी किया करते थे। २२ वर्षीय गौरा देवी पर वैधव्य का कटु प्रहार हुआ, तब उनका एकमात्र पुत्र चन्द्र सिंह मात्र ढाई साल का ही था। गौरा देवी ने ससुराल में रह्कर छोटे बच्चे की परवरिश, वृद्ध सास-ससुर की सेवा और खेती-बाड़ी, कारोबार के लिये अत्यन्त कष्टों का सामना करना पड़ा। उन्होंने अपने पुत्र को स्वालम्बी बनाया, उन दिनों भारत-तिब्बत व्यापार हुआ करता था, गौरा देवी ने उसके जरिये भी अपनी आजीविका का निर्वाह किया। १९६२ के भारत-चीन युद्ध के बाद यह व्यापार बन्द हो गया तो चन्द्र सिंह ने ठेकेदारी, ऊनी कारोबार और मजदूरी द्वारा आजीविका चलाई, इससे गौरा देवी आश्वस्त हुई और खाली समय में वह गांव के लोगों के सुख-दुःख में सहभागी होने लगीं। इसी बीच अलकनन्दा में १९७० में प्रलंयकारी बाढ़ आई, जिससे यहां के लोगों में बाढ़ के कारण और उसके उपाय के प्रति जागरुकता बनी और इस कार्य के लिये प्रख्यात पर्यावरणविद श्री चण्डी प्रसा भट्ट ने पहल की। भारत-चीन युद्ध के बाद भारत सरकार को चमोली की सुध आई और यहां पर सैनिकों के लिये सुगम मार्ग बनाने के लिये पेड़ों का कटान शुरु हुआ। जिससे बाढ़ से प्रभावित लोगों में संवेदनशील पहाड़ों के प्रति चेतना जागी। इसी चेतना का प्रतिफल था, हर गांव में महिला मंगल दलों की स्थापना, १९७२ में गौरा देवी जी को रैंणी गांव की महिला मंगल दल का अध्यक्ष चुना गया। इसी दौरान वह चण्डी प्रसा भट्ट, गोबिन्द सिंह रावत, वासवानन्द नौटियाल और हयात सिंह जैसे समाजिक कार्यकर्ताओं के सम्पर्क में आईं। जनवरी १९७४ में रैंणी गांव के २४५१ पेड़ों का छपान हुआ। २३ मार्च को रैंणी गांव में पेड़ों का कटान किये जाने के विरोध में गोपेश्वर में एक रैली का आयोजन हुआ, जिसमें गौरा देवी ने महिलाओं का नेतृत्व किया। प्रशासन ने सड़क निर्माण के दौरान हुई क्षति का मुआवजा देने की तिथि २६ मार्च तय की गई, जिसे लेने के लिये सभी को चमोली आना था। इसी बीच वन विभाग ने सुनियोजित चाल के तहत जंगल काटने के लिये ठेकेदारों को निर्देशित कर दिया कि २६ मार्च को चूंकि गांव के सभी मर्द चमोली में रहेंगे और समाजिक कायकर्ताओं को वार्ता के बहाने गोपेश्वर बुला लिया जायेगा और आप मजदूरों को लेकर चुपचाप रैंणी चले जाओ और पेड़ों को काट डालो।
इसी योजना पर अमल करते हुये श्रमिक रैंणी की ओर चल पड़े और रैंणी से पहले ही उतर कर ऋषिगंगा के किनारे रागा होते हुये रैंणी के देवदार के जंगलों को काटने के लिये चल पड़े। इस हलचल को एक लड़की द्वारा देख लिया गया और उसने तुरंत इससे गौरा देवी को अवगत कराया। पारिवारिक संकट झेलने वाली गौरा देवी पर आज एक सामूहिक उत्तरदायित्व आ पड़ा। गांव में उपस्थित २१ महिलाओं और कुछ बच्चों को लेकर वह जंगल की ओर चल पड़ी। इनमें बती देवी, महादेवी, भूसी देवी, नृत्यी देवी, लीलामती, उमा देवी, हरकी देवी, बाली देवी, पासा देवी, रुक्का देवी, रुपसा देवी, तिलाड़ी देवी, इन्द्रा देवी शामिल थीं। इनका नेतृत्व कर रही थी, गौरा देवी, इन्होंने खाना बना रहे मजदूरो से कहा”भाइयो, यह जंगल हमारा मायका है, इससे हमें जड़ी-बूटी, सब्जी-फल, और लकड़ी मिलती है, जंगल काटोगे तो बाढ़ आयेगी, हमारे बगड़ बह जायेंगे, आप लोग खाना खा लो और फिर हमारे साथ चलो, जब हमारे मर्द आ जायेंगे तो फैसला होगा।” ठेकेदार और जंगलात के आदमी उन्हें डराने-धमकाने लगे, उन्हें बाधा डालने में गिरफ्तार करने की भी धमकी दी, लेकिन यह महिलायें नहीं डरी। ठेकेदार ने बन्दूक निकालकर इन्हें धमकाना चाहा तो गौरा देवी ने अपनी छाती तानकर गरजते हुये कहा “मारो गोली और काट लो हमारा मायका” इस पर मजदूर सहम गये। गौरा देवी के अदम्य साहस से इन महिलाओं में भी शक्ति का संचार हुआ और महिलायें पेड़ों के चिपक गई और कहा कि हमारे साथ इन पेड़ों को भी काट लो। ऋषिगंगा के तट पर नाले पर बना सीमेण्ट का एक पुल भी महिलाओं ने तोड़ डाला, जंगल के सभी मार्गों पर महिलायें तैतात हो गई। ठेकेदार के आदमियों ने गौरा देवी को डराने-धमकाने का प्रयास किया, यहां तक कि उनके ऊपर थूक तक दिया गया। लेकिन गौरा देवी ने नियंत्रण नहीं खोया और पूरी इच्छा शक्ति के साथ अपना विरोध जारी रखा। इससे मजदूर और ठेकेदार वापस चले गये, इन महिलाओं का मायका बच गया। इस आन्दोलन ने सरकार के साथ-साथ वन प्रेमियों और वैज्ञानिकों का ध्यान अपनी ओर खींचा। सरकार को इस हेतु डा० वीरेन्द्र कुमार की अध्यक्षता में एक जांच समिति का गठन किया। जांच के बाद पाया गया कि रैंणी के जंगल के साथ ही अलकनन्दा में बांई ओर मिलने वाली समस्त नदियों ऋषि गंगा, पाताल गंगा, गरुड़ गंगा, विरही और नन्दाकिनी के जल ग्रहण क्षेत्रों और कुवारी पर्वत के जंगलों की सुरक्षा पर्यावरणीय दृष्टि से बहुत आवश्यक है। इस प्रकार से पर्यावरण के प्रति अतुलित प्रेम का प्रदर्शन करने और उसकी रक्षा के लिये अपनी जान को भी ताक पर रखकर गौरा देवी ने जो अनुकरणीय कार्य किया, उसने उन्हें रैंणी गांव की गौरा देवी से चिपको वूमेन फ्राम इण्डिया बना दिया।
श्रीमती गौरा देवी पेड़ों के कटान को रोकने के साथ ही वृक्षारोपण के कार्यों में भी संलग्न रहीं, उन्होंने ऐसे कई कार्यक्रमों का नेतृत्व किया। आकाशवाणी नजीबाबाद के ग्रामीण कार्यक्रमों की सलाहकार समिति की भी वह सदस्य थी। सीमित ग्रामीण दायरे में जीवन यापन करने के बावजूद भी वह दूर की समझ रखती थीं। उनके विचार जनहितकारी हैं, जिसमें पर्यावरण की रक्षा का भाव निहित था, नारी उत्थान और सामाजिक जागरण के प्रति उनकी विशेष रुचि थी। श्रीमती गौरा देवी जंगलों से अपना रिश्ता बताते हुये कहतीं थीं कि “जंगल हमारे मैत (मायका) हैं” उन्हें दशौली ग्राम स्वराज्य मण्डल की तीस महिला मंगल दल की अध्यक्षाओं के साथ भारत सरकार ने वृक्षों की रक्षा के लिये 1986 में प्रथम वृक्ष मित्र पुरस्कार प्रदान किया गया। जिसे तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी द्वारा प्रदान किया गया था।
गौरा देवी ने ही अपने अदम्य साहस और दूरदर्शिता से चिपको आन्दोलन का सूत्रपात किया था। हालांकि उन्हें परे कर अनेक लोगों ने इस आन्दोलन को हाईजैक कर अनेकों पुरस्कार बटोरे। लेकिन हमारी नजर में चिपको आन्दोलन की जननी गौरा देवी ही हैं। इस महान व्यक्तित्व का निधन 4 जुलाई, 1991 को हुआ, यद्यपि आज गौरा देवी इस संसार में नहीं हैं, लेकिन उत्तराखण्ड ही हर महिला में वह अपने विचारों से विद्यमान हैं। हिमपुत्री की वनों की रक्षा की ललकार ने यह साबित कर दिया कि संगठित होकर महिलायें किसी भी कार्य को करने में सक्षम हो सकती है। जिसका ज्वलंत उदाहरण है चिपको आन्दोलन को अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त होना है।


Gaura Devi (1925-91)

Forest is like our mother's home. We will defend it - come what may." After Gandhi's Satyagrah, this housewife of Chamoli, gave the next weapon, in the fight against state oppression - Chipko movement.
It is always said that forestry is not about trees. It is about people. No one has realised this more than the women of the Uttarakhand region. Everyone by now knows about the Chipko Movement. But not many know about the women of the Uttarakhand region who have made it their lifetime mission to leave undestroyed forests for their children and grandchildren. One has known old women and men who, towards the end of their lives, would plant trees which would bear fruits only many years later. When questioned these old people are known to have replied, "I won't be here to taste the fruits of this tree. But my grandchildren and their children would taste its fruits." The women of Uttarakhand would understand this sentiment for this has been their way of looking at the forests and the lives they support.
The Chipko movement (literally "to stick" in Hindi) was a group of female peasants in the Uttarakhand region of India who acted to prevent the felling of trees and reclaim their traditional forest rights that were threatened by the contractor system of the state Forest Department. As the backbone of Uttarakhand's agrarian economy, women were most directly affected by environmental degradation and deforestation, and thus connected the issues most easily.
One woman whom future generations in Uttarakhand are not likely to forget is Gaura Devi who has mobilised the women of this region to protect their natural heritage. Gaura Devi was not educated in the conventional sense of the term. She had not attended any school. Born in 1925 in a tribal Marchha family of Laata village in Neeti valley of Chamoli district, she was only trained in her family's traditional wool trade. In keeping with the tradition of those days, she was married off at a young age. She went to a family which had some land and was also in the wool trade. Unfortunately at the young age of 22, Gaura Devi became a widow with a two-and-a-half year old child to bring up. She took over the family's wool trade and brought up her son Chandra Singh alone. In time, she handed over the family responsibility to her son but did not sit back to rest. She was aware of the poverty of the region and how it affected women and how her own experiences of survival had taught her a lot. She was actively involved in the panchayat and other community endeavours. Hence, it was not surprising that the women of Reni approached her in the wake of the Chipko Movement in 1972, to be the president of the Mahila Mangal Dal. It was the first of its kind to be established. Its responsibilities were ensuring cleanliness in the village and the protection of community forests. Gaura Devi was in her late forties and her son was not doing very well. But she had no hesitation in accepting their offer.
The awareness generated by the Chipko Movement had already spread in all the areas of the region. Gaura Devi took up several campaigns to spread awareness in the nearby villages. Not only did the women but everyone in that region realised what the forests meant to them. Gaura Devi always referred to the forests as their gods. So the people of Reni were quick to react when the government authorised the felling of the trees in the belt and gave the job to contractors. They held demonstrations of protest. But little did they know that the date for the felling had already been fixed. It was fixed for March 25, 1974. That day, a group of forest officials along with some labourers started moving towards the forests. A young girl saw them and she went running back to report to Gaura Devi. That day there were no men in the village. All of them had gone to Chamoli. Undaunted, Gaura Devi and 27 women of Reni village began to march towards the forests. Soon they reached the group of men and their labourers who were cooking their food. Initially they tried to reason with them and told the labourers to leave after they ate their food. The officials who were already a bit drunk began to hurl obscenities at Gaura Devi and her group of women and told the labourers to go ahead and cut the trees. They were then told in no uncertain terms that if they attempted any such thing the women would cling to the trees. One of the officials who was drunk brandished a gun. The women stood in a row, each one of them looking as if the mountain goddess Nanda Devi had taken one of her fierce forms. They then chased the labourers for nearly two kilometres and broke the cement bridge leading to the forests. A group of them sat guarding the rest of the men and kept vigil throughout the night. Gaura Devi led more protests and rallied together more women.
In July 1991, at the age of 66, Gaura Devi died quietly in the mountain village of Reni. Her story will be told to many generations of mountain children by the women and men of that village.
 

Saturday, September 10, 2011

Dr. Aban Mistry........डा अबन मिस्त्री


Dr. Aban Mistry 
India's first woman tabla player



डा अबन मिस्त्री
भारत की पहली महिला तबला वादक


कही तबला बज रहा हो और आपकी आँखे बंद हो तो तबला के नाम लेते ही दिमाग में अक्सर एक ऐसी मर्दाना छवि बनेगी जिसमे बहुत उर्जा होगी. जिसके हाथ बहुत तेजी से तबले पर चल रहे होंगे . पर जैसे आप आँख खोले और सामने एक महिला को तबला बजाते हुए देखे तो आप क्या सोचेंगे और कहेंगे.शायद सपन सा ही लगे पर डा अबन मिस्त्री ने इसे हकीकत बना दिया हैं उनसठ वर्षीय तबला वादक मिस्त्री भारत की पहली महिला तबला वादकों में से एक हैं।


डा अबन मिस्त्री के लिए कितना मुश्किल रहा होगा यह सफर यह कोई भी इस बात से आसानी से समझ सकता हैं कि आज की महिलायों के सामने तो डा अबन मिस्त्री एक उधारण हैं पर उनके सामने तो कोई भी ऐसा उधारण नहीं था पर उन्होंने भी ठान लिया था इसलिए उन्होंने भारतीय पुरातत्व विभाग के दफ्तर से भी जानकारी प्राप्त करने की कोशिश की.तब कही जाकर उन्हे २२०० साल पुराना एक चित्र महाराष्ट्र की भाज गुफा की दीवार पर देखने को मिला जिसमे एक महिला टेबल जैसा एक वाद्य यंत्र बजा रही थी, फिर क्या था उन्हे अपना प्रेरणा स्त्रोत मिल गया था और उन्होंने तबला सीखना शुरू कर दिया |

भारत जैसे देश में जहां महिलाओं में शायद ही कोई ड्रम बजाती हो वहा , तबले को अपनाना और उसमे उपलब्धि हासिल करना अपने आप में एक बहुत बड़ी बात है . डा अबन मिस्त्री को संगीत जगत में अपनी पहचान बनाने के लिए कड़ा संघर्ष करना पड़ा। वह कहती हैं कि 'लोगों की मानसिकता बदलना बहुत मुश्किल है। कई बार ऐसा भी हुआ कि जब किसी ने सुना कि तबला मैं बजाऊंगी तो उसने कहा 'लड़की हो कर भी अच्छा बजाती है।'

जब मैंने कैरियर शुरू किया था तब एक ऐसा समय भी था जब लोग विशेष रूप से पुरुष मेरे संगीत को सुनने की जगह मुझे देखने आते थे क्योकि उन्हें विश्वास ही नहीं होता था कि कोई स्त्री भी तबला बजा सकती हैं ये 1950 के दशक की बात है.
डा अबन मिस्त्री बताती हैं कि 'पुरुष प्रधान क्षेत्र में कलाकार आसानी से स्वीकार नहीं करते कि तबले पर कोई महिला कलाकार संगत करे। वास्तविकता यह है कि पुरुष कलाकार महिला कलाकारों के साथ संगत करना अपनी प्रतिष्ठा के खिलाफ समझते थे यहाँ तक की महिला कलाकार भी मुझ पर विश्वास नहीं करती थी ना ही मुझे गंभीरता से लेती थी

तब मैंने अपने को और मजबूत करने और स्थापित करने और इस तरह की बाधाओं से पार जाने का फैसला किया.इसके लिए मुझे बस यही सिद्ध करना था कि मै एक अच्छी तबला वादक हूँ इसके लिए मैंने अपने तबले के संगीत का एक ‘रिकॉर्ड’ बनवाया . यह भी किसी महिला के द्वारा भारत में पहली बार किया गया कार्य था.

डॉ. मिस्त्री सितार भी अच्छा बजाती है,. कथक नृत्य उनका पसंदीदा शौक है , लेकिन खराब स्वास्थ्य के कारण इसमें समय नही दे पाती . उन्होंने पंडित लक्ष्मणराव बोदास से गायन भी सीखा है.

आज, लगभग पांच दशकों के प्रदर्शन के बाद, डॉ. मिस्त्री छात्रों को सीखने में व्यस्त रहती है. उनके कई छात्रो ने अब एक तबला वादक के रूप में उसे अपनी जगह बना ली है.

Dr. Aban Mistry

Speak of the tabla, and the mind conjures up images of vigorous beats and ustads playing with enormous energy. Images mostly masculine. And truth is, there are very few women who have mastered the instrument.

Meet Dr Aban Mistry. She is India's first woman tabla player. Her book on the tabla and the pakhawaj took her ten years to research, and experts say it will remain an invaluable reference book for generations of students.

The first thing Dr Mistry will tell you is that the tabla was not introduced by Amir Khusro in the 17th century, as is popularly believed. She believes it has been around for at least 2,200 years.

"I went through hundreds of papers at the Archaeological Survey of India, and even in government offices of small towns all over the country," says Dr Mistry. She also travelled all over the country with guru Pandit Keki Jijina. "There were times I've had to sleep in temples and even on the streets," she says.

A 2,200 year-old motif on the stone wall at Bhaja caves in Maharashtra, which shows a woman playing an instrument similar to the tabla, convinced her that the instrument has been around a long time. And that it was not just men who excelled at it.

The tabla became popular after the khayal style of singing gained popularity. Khayal is the most popular classical form in Hindustani music today. The tabla replaced the pakhawaj, which was popular with the dhrupad singers; the deep sonorous sound of the pakhawaj gave way to the lighter tone of the tabla.

But in a country where women hardly play any drums, taking up the tabla and living by it is quite a feat.

"There was a time when people, especially men, came to my concerts to see me rather than listen to me," recollects the 59-year-old musician who began her career in the early 1950s.

"Even women singers refused to take me as an accompanist because they would not trust me. No one took me seriously."
So she decided to get around the hurdles.

"I just had to prove that I was a good musician," she says. And in 1973, she cut her first tabla record, becoming the first woman ever to do so.
The idea of her book, which contains detailed information about all six tabla gharanas, and also their family trees, came up when she decided to write her doctoral thesis. In 1984, she had published Tabla aur phakhawaj ke gharane evam paramparayen in Hindi.

A tabla maestro to whom music is not only a potent stimulant for mortal existence, but the very breath of her life, Dr. Aban Mistry has scaled glorious heights as a celebrated musicologist.
Her debut in the Indian classical music began with vocal at the tender age of four with initial training from her aunt, late Mehroo Working boxwalla, followed by further training from Pt. Laxmanrao Bodas for a period of thirty long years. Around the same time, Pt. Jaisukhlal Shah offered to groom this nubile prodigy under his dexterous wings. During this period, Aban received her Sangeet Visharad, Sangeet Alankar, and Sangeet Praveen (Ph.D.) degrees.

Thoroughly imbued with the intricacies and nuances of tabla by the age of 17, Aban infused in her style, the creative aspects of all four gharanas - Delhi, Faroukhabad, Azradabad and Benaras - to evolve her pristine originality. She then mastered the concepts and techniques of Pakhawaj from the illustrious Pt. Narayanrao Mangal-vedhekar, which is consistently being augmented to this day by her guru Pt. Keki Jijina.
Moreover, Dr. Aban Mistry had the distinction of being conferred with coveted titles such as Taal Mani of Sur Singar Samsad, Sangeet Setu by S.M.V. sagar, Sangeet Kala Ratna by Sangeet Kala Kendra, Agra, etc.
As the first woman tabla player, Aban has been listed in the Limca Book of Records. She has performed at numerous concerts in India and across USSR, USA and Europe. She is also affiliated to several universities - like SNDT Mumbai, M.S. University at Baroda, etc.

Inspired by a missionary zeal having undergone insurmountable hurdles herself, Dr. Aban and her guru, Pt. Jijina founded a music institution called SWAR SADHNA SAMITI in 1961, to facilitate upcoming artistes. Here is a talented, well read and scholarly artiste, who has dedicated her life to music.

Dr Mistry plays the sitar too; she cut a disc in 1973. Dancing the Kathak was her favourite hobby till she had to give it up because of ill health. She has learnt singing from Pandit Laxmanrao Bodas.
Today, after performing for nearly five decades, Dr Mistry is busy teaching. Her student Vidya Parab-Sawant has carved her own niche as a tabla player.








Sunday, September 4, 2011

Malika virdi..........Malika virdi




Malika virdi

AID Saathi, Sarpanch of the Sarmoli village Forest Council (Van Panchayat)
founder member of a womens' collective in Munsiari called Maati
associated with several regional and national womens and human rights groups.
an avid mountain, people and nature person.
has worked for nearly 3 decades on various human rights and women rights related issues in many places across India (Rajasthan, Delhi, Gujarat and Uttaranchal).

मल्लिका विर्दी


AID संस्था की एक ‘साथी’
वन पंचायत सरपंच और सामाजिक कार्यकर्ता
मुनस्यारी में महिलायों के संगठन माटी की संस्थापक
कई क्षेत्रिय, राजकीय और राष्ट्रीय महिला और मानव अधिकार समूहों से सम्बंधित

दिल्ली विश्वविद्यालय से एमफिल की पढ़ाई पूरी करने के बाद मल्लिका विर्दी ने प्रोफेसर-अध्यापक बनने का सपना छोड़कर पिथौरागढ़ जिले का रुख कर लिया और वहां सरपंच बनने के बाद उन्होंने महिला अधिकारों की लड़ाई लड़ी तथा पहाड़ी समाज में जागरूकता फैलाई। उन्होंने इको टूरिज्म को बढ़ाने में स्थानीय लोगों को सहयोग दिया। 

 
सरमोली उत्तराखंड में एक दूरदराज का पहाड़ी गांव है. यहाँ जीवन यापन और निर्वाह के लिए ऐसी अर्थव्यवस्था की जरूरत है जो वन क्षेत्र की प्राक्रतिक संपदा के इस्तेमाल के सहारे चलती हो . इसी तरह से लंबे समय से हिमालय क्षेत्र में कृषि की जाती रही है. ब्रिटिश राज के दौरान एक संघर्ष के बाद, इसे कानूनी रूप दिया गया. इसमें लोग अधिसूचित समुदाय जंगलों को पाने में कामयाब रहे इन्हें वन पंचायत कहा जाता है. इसके अंतर्गत प्रत्येक गाँव को एक सामुदायिक वन क्षेत्र दिया जाता है. जिसकी प्राक्रतिक वन संपदा से वहा के निवासियों का जीवन यापन हो सके और उसके साथ ही वो प्राकृतिक संसाधनो के बेहतरीन तरीके से इस्तेमाल करते हुए उस क्षेत्र और संपदा का विकास भी कर सके. जिस से आगे आने वाली पीढियों को भी जीवन यापन के लिए वहा से जाना न पड़े.इस व्यवस्था को चलाने के लिए एक समूह बनाया जाता हैं जिसे वन पंचायत कहा जाता है और उसके मुखिया को सरपंच .यह तरीका लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण का एक बढ़िया उधारण है इसलिए हमेशा चर्चा का विषय भी रहा हैं 

 
उत्तराखण्ड महिला मंच की मल्लिका विर्दी के अनुसार आज शहरी भारत और ग्रामीण भारत का विभाजन हो गया है। ग्रामीण भारत की कीमत पर शहरी भारत एशोआराम के साधन जुटा रहा है। संसाधनों की इस लूट के खिलाफ हमारी लड़ाई है। उन्होंने बताया कि सीमान्त क्षेत्र में गोरी नदी पर आठ बड़े बाँध बनाये जा रहे हैं और गाँव उजाड़े जा रहे हैं। जल, जंगल और जमीन के मुद्दे लगातार बढ़ रहे हैं । यह क्षेत्र फल पट्टी के रूप में प्रसिद्ध है। सेब, आड़ू, पुलम तथा आलू उत्पादन यहाँ का मुख्य व्यवसाय है। दूसरी विषेशता यहाँ की यह है कि इस पूरे क्षेत्र से हिमालय के भव्य दर्शन होते हैं तथा मैदानी क्षेत्र से भी पहाड़ का यह इलाका अधिक दूर नहीं है। इन कारणों से इधर के 10-15 वर्षों में यहाँ की अधिकांश जमीन बाहरी लोगों के हाथ बिकती जा रही है। बाहर से आकर उत्तराखण्ड में लोगों के बसने का सिलसिला पुराना है। परन्तु अब व्यावसायिक उद्देश्य से कॉटेज बनाकर बेचने के लिए जो बिल्डर आये हैं वे पहाड़ की संस्कृति तथा जनजीवन को अपने धनबल के आधार पर ध्वस्त करने लगे हैं। समस्याएँ यहीं से शुरू हुई हैं। इन सब समस्याओ से निबटने के लिए उत्तराखंड में वन पंचायतों या ग्राम वन परिषद सफल काफी हद तक कारगर साबित हुई है | मल्लिका ने वन पंचायत की सरपंच बनकर वहा पैदा हो रहे इस तरह के मुद्दों पर भी अपनी लड़ाई शुरू कर दी है |

मुनस्यारी आकार मल्लिका ने माटी नाम के एक संगठन की साल 2000 में स्थापना की जिसमे गैर राजनीतिक समूह के लोग एक साथ आगे आये | यह संगठन पर्वतो पर महिलाओं के रोजमर्रा के जीवन, उनकी आजीविका और खाद्य सुरक्षा और उसने साथ होने वाली हिंसा से मुक्त जीवन इत्यादि के संघर्ष से संबंधित मुद्दों को संबोधित करने के लिए प्रतिबद्ध है|

 
मल्लिका विर्दी AID संगठन से एक ‘साथी’ की हैसियत से भी जुड़ी हुई है . AID एक गैर-लाभ, स्वयंसेवक-आधारित भारत के विकास के लिए प्रतिबद्ध संगठन है जो शिक्षा, आजीविका, प्राकृतिक संसाधनों, स्वास्थ्य, महिलाओं के सशक्तिकरण जैसे विभिन्न क्षेत्रों में जमीनी स्तर पर ही पूरे भारत में काम करने वाली संस्थानों को परस्पर जोड़ने और आगे बढ़ावा देने के लिए काम करती है |जिससे लोगो का और उस क्षेत्र का वहा के प्राकृतिक संसाधनों का ठीक से इस्तेमाल करते हुए न्यायोचित विकास हो सके और उनके आजीविका कमाने के स्थायी प्रबंध हो सके.

मलिका के काम निम्नलिखित क्षेत्रों पर केंद्रित है:

- पर्वतीय क्षेत्रो में खाद्य सुरक्षा
- पर्यावरण की सुरक्षा के मुद्दे
- स्थानीय और क्षेत्रीय महिलाओं के समूहों के साथ नेटवर्क बनाना
- ऊन और राजमा के उत्पादन को बढाकर उस से आय में बढ़ोतरी
- महिलायों में गर्भावस्था परीक्षण और स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता
- पंचायती राज चुनाव प्रक्रिया का समर्थन महिला प्रतिनिधियों के लोकतांत्रिक तरीकों से चुनने की प्रक्रिया और शाशन के कार्यों में भागीदारी को मजबूत बनाना
- शासन में समुदाय वन पर राज्य नीति की गंभीरता से समीक्षा करना और वन पंचायत को और अधिक सक्रिय और अधिक भागीदार बनाना .
- मुनस्यारी में शराब के खिलाफ आंदोलन चलाना

Malika virdi

 
Malika is a M Phil from Delhi University in Social work. That would make her, perhaps, the most highly qualified sarpanch in the country. That degree sits lightly on her shoulders. She looks after the van panchayat of the Sarmoli and neighbouring village in Munsiyari town, Pithoragarh district of Uttrakhand state. This is an honorary elected post designed to manage the village forests entirely with people’s cooperation and participation. Uttrakhand is one of the few states where the van panchayats are working well with least interference from the government. “I didn’t want the post but liked to continue to work as a panch but my colleagues persuaded me to take up the chairmanship,” she confided. She supervises the auction of grass and other produce with the money going to the common kitty of the village. She has the authority to issue permits for cutting grass, timber, collecting leaf litter and other forest produce in the van panchayat under her control.

 
As per Mallika herself …. It needs courage, character and idealism to forsake urban comfort and move to such a beautiful, but harsh place. Yet coming as an outsider to a remote village, Malika has taken up women's and environmental issues and is working towards bringing a change in the lives of the womenfolk. mALLIKAMallika is a lady who left the city for the mountains and is tackling the problems confronting the locals as her own. 

 
I started working in Delhi after my MA in Social Sciences. I did my MPhil and wanted to do a PhD. But I wanted to 'work'. I was interested more by action than research. I stopped my studies, went into activism.

 
before coming to Munsyari, thee remote part of Uttarakhand I was working in Rajasthan on a Women's Development Programme and came to settle here in 1992. Theo (Malika's husband) was in Anand in Gujarat with the National Dairy Development Board. We decided set up home in the mountains. He had a project and I came to settle here to be a farmer and mother.
I had never done farming before, but I thought that it was the right thing to do. It was not really significant that this place was very remote. There was a lot of romanticism involved. In 1993, we bought a piece of land and built a small room in 1994.
She has been around in Sarmoli village for two decades with her husband Theosophles, Theo, for short, who was her classmate. He too is interested in mountain climbing and trekking. Their interests are common and so complement each other. Theo is the Trans-Himalayan director for the “Foundation for Ecological Security”, known locally as the pariyavaran office.Their only son, aptly named, Zanskar, (a mountain range in the J&K state) was interested in flora, fauna, the mountains and streams, having lived in the mountains from a young age. He is in a public school at Nainital. However, it’s a tough life up the mountains with no electricity and only solar-power. Theo used to carry LPG cylinders up the steep mountainside to reach their lonely home set amidst splendorous isolation with a grandstand view of the Panchachului peaks. She coaxes crops out of the barren soil using only organic manure; crop rotation is the norm. Her farm-grown rajma (kidney) beans, labelled aptly ‘organic’ is much sought after by her friends.

 
Sarmoli is a remote mountain village. The subsistence economy is such that you need a forest to support it. It is the way agriculture has been going on in the Himalayas for a long, long time. After a struggle during the British Raj, the people managed to get community forests legally notified: this is called the Van Panchayat. This happened in 1931, and our village Van Panchayat was notified in 1949. an Panchayats or Village Forest Councils in Uttarakhand are often spoken about as successful institutions for democratic decentralization, and as models for the governance of natural resource commons. Each village community has a support forest area -- in our case 34 hectares -- and it is governed in a democratic way. We have elections every five years. A council is elected and the head of the council is called a sarpanch.

 
About AID : Association for India's Development is a non-profit, volunteer-based organization committed to promoting sustainable, equitable and just development in India by supporting grassroots level organizations all over India in various interconnected spheres such as education, livelihoods, natural resources, health, women's empowerment and social justice.

About AID's Saathi Program: The program creates a mutually enriching relationship between AID and the Saathi and entails not only support in the form of a stipend, but also non-monetary involvement and strategic support from AID volunteers. Saathis are a source of great inspiration to AID volunteers, and provide insight into development dynamics. Saathis are referred to AID by our associates in India and volunteers across AID. In many cases, existing Saathis and Jeevansaathis recommend potential candidates to us. We stay in intimate touch with our Saathis and their work through personal visits, phone calls and correspondence.
Malika has been working on these following areas :
• Strenthening democratic institutions (Eg. van panchayat and increased participation of people-centric women candidates for panchayati raj, writing about women elected representatives in local magazine, Uttara)
• Building networks, alliances and broad basing our understanding(Eg. Publishing about her deposition of state of Uttarakhand's forest, Part of 'Jal Jatra' organized by Uttarakhand Nadi Bachaoo Abhiyan, active with Uttarakhand Parivartan Abhiyan, Uttarakhand Mahila Manch, held a state lebel meet on primary education with Rachnatmak Shiksha Manch, Uttarakhand, 6 week Landscape and Lifeskills course, hosted interns for educational excursions for students from international universities)
• Women's Issues (Eg. Preventing violence against women, Liquor Prohibition campaign as social boycott leading to reduced drunkenness and violence, honoring 5 women as 'Munsiari ki Chingari'(Sparks of Munsiari) as part of International Women's Day)
• Livelihood Issues and Food Security (Eg. Strenthening the solarized food economy, market small surplus of food and spices locally, completed year long study on 'The Dependence of subsistence farming on the forests for nutrient recycling', wool work, Community Based Nature Tourism Enterprise, celebrated World Tourism Day, getting computers for Maati from a foundation for computer literacy and information access)
• Ecological Security issues (Eg. Disseminating information on public hearing process to discuss the legal and policy implications for the community and the ecology of the Gori valley about the several hydro power projects planned in the valley, organizing second Mesur Forest Fair, Sarmoli Jainti Van Panchayat work, working with the State Department on tourism initiative and conservation of the montane bamboo, challenging Forest Department as it encroches on more community ownership of the van panchayat so that the community manages the forest to meet the subsistence needs of the community as opposed to being exploited by the market).
• Malika Virdi has been nominated by a group called the 1000 Women for the Nobel Peace Prize 2005 as one of their nominees for the year’s (2005) Nobel Peace Prize. It’s a unique endeavor which gains significance in the fact that it aims to bring recognition to a thousand women across the world like Malika who have been working on significant issues related to women as well as towards the larger well being to living kind