Saturday, October 29, 2011

Dr Vandana Shiva............डा वंदना शिवा



Dr Vandana Shiva (b. November 5, 1952)

philosopher, environmental activist, and eco feminist. authored more than 20 books and over 500 papers

डा वंदना शिवा (जन्म. 5 नवंबर 1952)
एक दार्शनिक, पर्यावरण कार्यकर्ता, पर्यावरण संबंधी नारी अधिकारवादी एवं कई पुस्तकों की लेखिका
वंदना शिवा पर्यावरण के लिए किसी भी मंच पर लडाई लडने में सबसे पहले नाम आता है डॉ. वंदना शिवा का। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंच से उन्होंने पर्यावरण संरक्षण की आवाज बुलंद की है। इंटरनेशनल फोरम आन ग्लोबलाइजेशन की सदस्य वंदना शिवा ने 1984 में केंद्र सरकार की हरित क्रांति का भी विरोध किया था, क्योंकि उन्होंने हरित क्रांति के पीछे रासायनिक खादों के भयानक इस्तेमाल की तैयारी सूंघ रखी थी।
उनके ही शब्दों में.….मैंने जब 1984 में हरित क्रांति का विरोध शुरू किया था तो इसके पीछे एक मकसद था। कहा जाताथा कि पंजाब में हरित क्रांति से खुशहाली आएगी। चीन में लाल क्रांति हुई लेकिन भारतमें बीजों के द्वारा होगी क्रांति। कहा गया कि हरित क्रांति से किसान संपन्न होंगे।संपन्न किसान कभी हथियार नहीं उठाएंगें। लेकिन 80 के दशक में तो बंदूक ही बंदूक थी।पंजाब में खालिस्तान बनने लग गया था।
हरित क्रांति अनाज उगाने की क्रांतिनहीं बल्कि रासायन बेचने की क्रांति थी। रासायनिक उत्पादों के बाजार बनाने के चक्कर में आपने अपनी फसलों को गायब कर दिया। इस देश में कमी किस चीज की है? इस देश मेंप्रोटीन की कमी है। इस देश में तेल की कमी है। जबकि हरित क्रांति के नाम परतिलहन और दलहन ही गायब कर दिए गए। जो बदलाव हुआ उसमें यहतय हो गया कि आप मिश्रित खेती की जगह पर अकेला गेहूं और चावल उगाओगे। जबकि यदि आपउतना जमीन और पानी गेंहू और चावल के उत्पादन पर लगा देते तो यहां के किसान बिनाकिसी नए बीज के उतना गेंहू चावल उगा लेते। हमारे पुराने बीजों इतने क्षमता वाले थे।फिर उसी हरित क्रांति और रासायनिक खेती की वजह से किसानों के खर्च बढ़ गए। परपहले उस खर्च को सब्सिडी के नाम पर छिपाया गया। जब धीरे धीरे सब्सिडी हटायी जानेलगी तब किसानों को इसकी असलियत का पता चला। पंजाब के किसानों को यह लगने लगा है किवह खर्च ज्यादा करते हैं और तुलना में मिलता कम है।
किसान क्या उगाएगा यह भी वह तय नहीं कर पा रहा है। यह दिल्ली और वाशिंगटन में बैठी सरकारें तय कर रही हैं। तभी वहां 80 के दशक में आतंकवाद शुरू हुआ। 90 के दशक में वही संकट और भी गहरा होता चलागया। अब किसान आत्महत्या करने पर मजबूर हैं। यह कोई खाद्य सुरक्षा का रास्ता है? यहतो किसानों को खत्म करने का रास्ता है।
उनके अनुसार..हमारा उत्पादन कम नहीं है।  हमारा उत्पादन अमरीका से कहीं ज्यादा है। अमरीका कीआबादी ही कितनी है। फिर हम अकेले सोयाबीन और मक्का नहीं उगा रहे हैं। हमें मिश्रितफसलें उगानी होती है। यदि आप पूरी विविधता का उत्पादन देखेंगे तो आज भी भारत का उत्पादन अमरीका से ज्यादा है। अमरीका में उत्पादन की व्यवस्था निगेटिव अर्थव्यवस्था है। वहां दस कैलोरी खर्च करके एककैलोरी पैदा करते हैं। उनकी औद्योगिक अर्थव्यवस्था का आधार सस्ते पेट्रोलियम पर टिका था। सस्ते तेल का जमाना खत्म हो गया है। इसलिए अमेरिका का सारा ढांचा टूट रहा है. उनकी खेती का ढांचा भी टूटेगा. हमारी खेती इकोलॉजिकल है। हमारी खेती मेहनत की खेती है। पेट्रोलियम आधारितखेती नहीं है। आज उसी इलाके में सबसे ज्यादा आत्महत्याएं होरही हैं जहां बीटी कॉटन पहुंचा है. अमेरिका का अनाज जहरीला और घटिया होता है। हम अमरीका का मॉडल नहीं अपना सकते।
वो आगे कहती है...हमने 1965 से अमरीका के कहने पर रासायनिक उत्पादों को सब्सिडाइज किया। पूरे देश में रासायनिक उत्पादों का बाजार चला दिया। आजयदि रासायनिक उत्पादों से मुक्त खेती करनी है तो इसकी तीन जरूरते हैं। पहलाकिसानों की आत्महत्या को रोकना पड़ेगा। आत्महत्या ऋण से जुड़ा है और ऋण रासायनिकउत्पादों से जुड़ा हुआ है। अगर किसान आत्महत्या रोकना है तो आपको रासायनिक उत्पादोंसे मुक्त खेती को बढ़ावा देना होगा। इसके लिए आपको 11वीं पंचवर्षीय योजना में नीतिगतफैसले करने पड़ेगे। रासायनिक खेती दस गुणा ज्यादा पानी पीती है। देश के लोग पानी पीनहीं पा रहे हैं,खेती में कहां से लगा पाएंगें। हमारे शोध ने दिखाया है कि आर्गेनिक खेती करके बिना उत्पादन पर घाटा खाये 70 प्रतिशत तक पानी की कमी कर सकते हैं। तीसरा कि यदि रासायनिक प्रभाव हटाना है तो खाने के चीजों से इसे अलग रखना होगा। आप नीति बनाइए, इस देशके लिए। दुख की बात है कि इस देश की नीति बन रही है वाशिंगटन में।नॉलेज एग्रीमेंट आफ एग्रीकल्चर हस्ताक्षर किए हैं उसके बोर्ड में मोनसेंटो और वालमार्ट है। भारत को अंतरराष्ट्रीय बहुराष्ट्रीय कंपनियों का बाजार बनाया जा रहाहै। ये नीति इस देश को खत्म कर देगी.
आज प्राकृतिक खेती पर भी प्रशंसनीय कार्य किये गए है । पर इन सभी का योगदान हमारे कृषि विश्वविद्यालयों के लिए कोई मायने नहीं रखता और पाठ्यक्रमों में इनके नाम तक नहीं हैं । यदि हमारे अनुसंधानकर्ताओ  ने ही उनकी सुध नहीं ली है उनके बताए नुस्खों पर प्रयोग नहीं किए तो इन वैज्ञानिकों का कार्य किसानों तक कैसे पहुचेगा और कहां से आएगी हमारे खेती में समृद्धि कौन बताएगी हमारे खेती में समृद्धि कौन बताएगा गावों को स्वालंबी व कैसे दूर होगी खेती की उपेक्षा ?

उनके अनुसार ...प्रकृति अपने उत्पादित कचरे को ठिकाने लगाती और उपयोगी बनाती रहती है । पशुओ  के मल-मूत्र, पेड़ों से गिरे पत्ते आदि सड़ गल कर उपयोगी खाद बन जाते हैं और वनस्पति उत्पादन में काम आते हैं । मनुष्य का मल - मूत्र भी उतना ही उपयोगी है पर इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि उससे खाद न बनाकर नदी - नालों में बहा दिया जाता है और पेय जल को दूषित कर दिया जाता है । इससे दुहरी हानि है, खाद से वंचित रहना और कचरे को नदियों में फेंककर बीमारियों को आमन्त्रित करना । सरकारी तथा गैर सरकारी स्तरों पर किए जा रहे अनेक प्रयासों के बावजूद इन दिनों कचरे में भयानक वृद्धि हो रही है । हर वस्तु कागज, प्लास्टिक की थैली, पत्तल, दोना, डिब्बा आदि में बंद करके बेची जाती है । वस्तु का उपयोग होते ही वह पेकिंग कचरा बन जाती है और उसे जहां - तहां सड़कों, गलियों में फेंक दिया जाता है । इसकी सफाई पर ढेरों खर्च तो होता है, विशेष समस्या यह है कि उसे डाला कहां जाए ? आजकल शहरों के नजदीक जो उबड़ खाबड़ जमीनें होती हैं वे इस कचरे से भर जाती हैं ।
फूड सेफ्टी बिल के बारे में वह कहती है कि...यह आबाद करने के लिए नहीं बर्बाद करने के लिए है। इस बिल का बहाना क्या है?हमारा खाद्य सुरक्षित नहीं अब हम सुरक्षित खाना खाएंगे. क्या भारतके लोग ज्यादा बुरा खाना खा रहे थे। अमरीका से ज्यादा अच्छा खाना खा रहे हैं।हमारे खाने में आज भी स्वाद है। वहां का सारा खाना इंडस्ट्री प्रोसेस्ड है। इस देशमें एक कानून था प्रीवेंशन आफ फूड एडलट्रेशन एक्ट। उस एक्ट के तहत खाने में गलत चीजडाल ही नहीं सकते थे। इसकी वजह से आप खाने को इंडस्ट्रीलाइज नहीं कर पा रहे थे।क्योंकि इंडस्ट्रीलाइज फूड में एक एक खाने में बीस बीस तरह केरासायनिक उत्पाद मिलाने पड़ते हैं. ये जो नया फूड सेफ्टी स्टैण्डर्ड बिल है इसके दो आब्जेक्टिव हैं। पहला कि यह अनसेफ फूड लाने का बिल है। मंत्रीजी ने कहा कि इससे तीसप्रतिशत तक फूड प्रोसेसिंग बढ़ जाएगी। पैकेज्ड फूड में इतना केमिकल होता है कि इसे स्वास्थ्य के लिए अच्छा खाना नहीं समझा जाता है।आठ महीने बाद क्या खाना सलामत रह पाता है?तब तक तो उसे सड़ जाना चाहिए। रासायन की वजह से वह बचा रह पाता है। ऐसे में यह कहनाकि पैकेज्ड फूड का प्रतिशत बढ़ेगा और इससे स्वास्थ्य बनेगा, कहना गलत है। दूसराइसमें जो स्टैण्डर्ड डाले गए हैं, वह स्टैण्डर्ड भारत की खाद्य सुरक्षा के खिलाफहै। इसमें किसान को घेर लिया है।
वंदना शिवा (जन्म. 5 नवंबर 1952, देहरादून, उत्तराखंड, भारत), एक दार्शनिक, पर्यावरण कार्यकर्ता, पर्यावरण संबंधी नारी अधिकारवादी एवं कई पुस्तकों की लेखिका हैं। वर्तमान में दिल्ली में स्थित, शिवा अग्रणी वैज्ञानिक और तकनीकी पत्रिकाओं में 300 से अधिक लेखों की रचनाकार हैं। उन्होंने 1978 में डॉक्टरी शोध निबंध: "हिडेन वैरिएबल्स एंड लोकैलिटी इन क्वान्टम थ्योरी" के साथ पश्चिमी ओंटेरियो विश्वविद्यालय, कनाडा से अपनी पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की।

शिवा ने 1970 के दशक के दौरान अहिंसात्मक चिपको आंदोलन में भाग लिया। इस आंदोलन ने, जिसके कुछ मुख्य प्रतिभागी महिलाएं थी, पेड़ों की कटाई को रोकने के लिए पेड़ों के चारों तरफ मानव चक्र तैयार करने की पद्धति को अपनाया। वे वैश्वीकरण के संबंध में अंतर्राष्ट्रीय फोरम की नेताओं में से एक हैं (जेरी मैंडर, एडवर्ड गोल्डस्मिथ, राल्फ नैडर, जेरेमी रिफ़कीन आदि के साथ), और वे वैश्वीकरण में परिवर्तन लाओ (अल्टर-ग्लोबलाइज़ेशन मूवमेंट) नामक वैश्विक एकजुटता आंदोलन की एक विभूति हैं। उन्होंने कई पारंपरिक प्रथाओं के ज्ञान के पक्ष में तर्क प्रस्तुत किया है, जो कि वैदिक पर्यावरण (रैन्कर प्राइम द्वारा रचित) में दिये गए उनके साक्षात्कार से स्पष्ट है जो भारत की वैदिक विरासत की ओर आकर्षित करता है।

वंदना शिवा का जन्म देहरादून की घाटी में हुआ जिनके पिता एक वन संरक्षक एवं माता प्रकृति प्रेम रखने वाली किसान थी. उनकी शिक्षा नैनीताल में सेंट मैरी स्कूल और जीसस एवं मैरी कन्वेंट, देहरादून में हुई. शिवा एक प्रशिक्षित जिम्नास्ट थी एवं भौतिकी विज्ञान में स्नातक की अपनी उपाधि प्राप्त करने के बाद, उन्होंने गुएल्फ विश्वविद्यालय (ओंटारियो, कनाडा) से "चेंजेज इन द कन्शेप्ट ऑफ पिरियडिसिटी ऑफ लाइट" शीर्षक नामक शोध-प्रबंध के साथ विज्ञान के दर्शन में स्नातकोत्तर कला की अपाधि प्राप्त की 1979 में, उन्होंने पश्चिमी ओंटारियो विश्वविद्यालय से अपने पीएच.डी. को पूरा किया और उपाधि प्राप्त की. उनके शोध-प्रबंध का शीर्षक "हिड्डेन वैरिएबल्स एंड लोकैलिटी इन क्वान्टम थ्योरी" था.बाद में उन्होंने बंगलोर में भारतीय विज्ञान संस्थान एवं भारतीय प्रबंधन संस्थान से विज्ञान, प्रौद्योगिकी एवं पर्यावरण नीति पर अंतर्विषयक अनुसंधान कार्य किया.
वंदना शिवा ने कृषि और खाद्य पदार्थ के व्यवहार एवं प्रतिमान में परिवर्तन लाने के लिए संघर्ष किया है. बौद्धिक संपदा अधिकार, जैव विविधता, जैव प्रौद्योगिकी, जैव-नीतिशास्त्र, आनुवंशिक इंजीनियरिंग उन क्षेत्रों में से हैं जिनमें शिवा ने बौद्धिक रूप से एवं कार्यकर्ता के अभियानों के माध्यम से योगदान दिया है. उन्होंने आनुवंशिक इंजीनियरिंग के विरुद्ध अभियानों के माध्यम से अफ्रीका, एशिया, लैटिन अमेरिका, आयरलैंड, स्विट्ज़रलैंड एवं ऑस्ट्रिया में हरित आंदोलन के मूलभूत संगठनों को सहायता प्रदान की है।
1982 में, उन्होंने विज्ञान, प्रौद्योगिकी एवं परिस्थिति विज्ञान के लिए अनुसंधान फाउंडेशन की स्थापना की, जिसने नवदान्य की रचना की. उनकी पुस्तक "स्टेयिंग अलाइव" ने तीसरी दुनिया की महिलाओं के संबंध में धारणा को पुन: परिभाषित करने में सहायता की. शिवा ने अंतर्राष्ट्रीय वैश्वीकरण मंच, महिलाओं के पर्यावरण एवं विकास संगठन एवं तीसरी दुनिया के नेटवर्क सहित भारत एवं विदेशों में सरकारों तथा गैर-सरकारी संगठनों के सलाहकार के रूप में भी कार्य किया है।
वंदना शिवा ने 2007 में स्टॉक एक्सचेंज ऑफ विज़न्स परियोजना में भाग लिया। वे वर्ल्ड फ्यूचर काउंसिल की एक पार्षद है।

Vandana Shiva

“Globalized industrialized food is not cheap: it is too costly for the Earth, for the farmers, for our health. The Earth can no longer carry the burden of groundwater mining, pesticide pollution, disappearance of species and destabilization of the climate. Farmers can no longer carry the burden of debt, which is inevitable in industrial farming with its high costs of production. It is incapable of producing safe, culturally appropriate, tasty, quality food. And it is incapable of producing enough food for all because it is wasteful of land, water and energy. Industrial agriculture uses ten times more energy than it produces. It is thus ten times less efficient.”
Vandana Shiva (b. November 5, 1952, Dehra Dun, Uttarakhand, India), is a philosopher, environmental activist, and eco feminist.Shiva, currently based in Delhi, has authored more than 20 books and over 500 papers  in leading scientific and technical journals.She was trained as a physicist and received her Ph.D. in physics from the University of Western Ontario, Canada, in 1978 with the doctoral dissertation "Hidden variables and locality in quantum theory."
She is one of the leaders and board members of the International Forum on Globalization, (along with Jerry Mander, Edward Goldsmith, Ralph Nader, Jeremy Rifkin, et al.), and a figure of the global solidarity movement known as the alter-globalization movement. She has argued for the wisdom of many traditional practices, as is evident from her interview in the book Vedic Ecology (by Ranchor Prime) that draws upon India's Vedic heritage. She is a member of the scientific committee of the Fundacion IDEAS, Spain's Socialist Party's think tank.
She was awarded the Right Livelihood Award in 1993.

Vandana Shiva was born in the valley of Dehradun, to a father who was the conservator of forests and a farmer mother with a love for nature. She was educated at St Mary's School in Nainital, and at the Convent of Jesus and Mary, Dehradun.[5] After receiving her bachelors degree in physics, she pursued a M.A. in the philosophy of science at the University of Guelph (Ontario, Canada), with a thesis entitled "Changes in the concept of periodicity of light". In 1979, she completed and received her Ph.D. in Philosophy at the University of Western Ontario. Her thesis was about the philosophical underpinnings of quantum mechanics was titled "Hidden Variables and locality in Quantum Theory".[4][6] She later went on to interdisciplinary research in science, technology and environmental policy, at the Indian Institute of Science and the Indian Institute of Management in Bangalore.

Vandana Shiva has fought for changes in the practice and paradigms of agriculture and food. Intellectual property rights, biodiversity, biotechnology, bioethics, genetic engineering are among the fields where Shiva has contributed intellectually and through activist campaigns. She has assisted grassroots organizations of the Green movement in Africa, Asia, Latin America, Ireland, Switzerland, and Austria with campaigns against genetic engineering. In 1982, she founded the Research Foundation for Science, Technology and Ecology, which led to the creation of Navdanya in 1991, a national movement to protect the diversity and integrity of living resources, especially native seed, the promotion of organic farming and fair trade. For last two decades Navdanya has worked with local communities and organizations serving many men and women farmers. Navdanya’s efforts have resulted in conservation of more than 2000 rice varieties from all over the country and have established 34 seed banks in 13 states across the country. More than 70,000 farmers are primary members of Navdanya. In 2004 Dr Shiva started Bija Vidyapeeth, an international college for sustainable living in Doon Valley, in collaboration with Schumacher College, U.K.

In the area of IPRs (Intellectual Property Rights) and Biodiversity, Dr. Shiva and her team at the Research Foundation for Science, Technology and Ecology successfully challenged the biopiracy of Neem, Basmati and Wheat. Besides her activism, she has also served on expert groups of government on Biodiversity and IPR legislation.
Her first book, "Staying Alive" (1988) helped redefine perceptions of third world women. In 1990 she wrote a report for the FAO on Women and Agriculture entitled, “Most Farmers in India are Women”. She founded the gender unit at the International Centre for Mountain Development (ICIMOD) in Kathmandu and was a founding Board Member of the Women Environment and Development Organisation (WEDO)
Shiva has also served as an adviser to governments in India and abroad as well as non governmental organisations, including the International Forum on Globalization, the Women's Environment & Development Organization and the Third World Network. Dr. Shiva chairs the Commission on the Future of Food set up by the Region of Tuscany in Italy and is a member of the Scientific Committee which advises President Zapatero of Spain. Shiva is a member of the Steering Committee of the Indian People’s Campaign against WTO. She is a councillor of the World Future Council. Dr Shiva serves on Government of India Committees on Organic Farming. Vandana Shiva participated in the Stock Exchange of Visions project in 2007.

Time Magazine identified Dr. Shiva as an environmental “hero” in 2003 and Asia Week has called her one of the five most powerful communicators of Asia.
Vandana Shiva is working on a 3 year project with the Government of Bhutan, at the invitation of the Prime Minister Jigme Thinley, advising the Government on how to achieve their objective of becoming an Organic Sovereign country (the first fully 100% organic country).
Vandana Shiva plays a major role in the global Ecofeminist movement. According to her article Empowering Women, Shiva suggests that a more sustainable and productive approach to agriculture can be achieved through reinstating a system of farming in India that is more centered around engaging women. She advocates against the prevalent "patriarchal logic of exclusion," claiming that a woman-focused system would change the current system in an extremely positive manner.

In this way, Indian and global food security, can only benefit from a focus on empowering women through integrating them into the agricultural system.


Sunday, October 9, 2011

Dr. (Capt.) Lakshmi Sahgal......डॉ (केप्टन) लक्ष्मी सहगल.




Dr. (Capt.) Lakshmi Sahgal (INA) 

(Born : 24 Oct, 1914-23 jul 2012)
The Left's Candidate For President
Padma Vibhushan 1988


डॉक्टर (केप्टन) लक्ष्मी सहगल (जन्म : 24 अक्टूबर, 1914 -23 जुलाई २०१२ )

आजाद हिन्द फौज की 'रानी लक्ष्मी रेजिमेन्ट' की कमाण्डर तथा 'आजाद हिन्द सरकार' में महिला मामलों की मंत्री
भारत के राष्ट्रपति की उम्मीदवार
पद्मविभूषण १९८८

वीरता और मानव सेवा की प्रतीक...कर्नल लक्ष्मी सहगल भारत की उन महान महिलाओं में से एक हैं जो बहादुरी और सेवा भावना दोनों की अद्भुत मिसाल हैं और जो कई मामलों में भारत के इतिहास की प्रथम महिला के रूप में जानी गयी. कैप्टन लक्ष्मी सहगल भारत की एक शेर दिल महिला है .उन्होंने नेताजी सुभाष चंद्र बोस द्वारा स्थापित भारतीय राष्ट्रीय सेना (आईएनए) के लिए बन्दूक उठाई और भारत की स्वतंत्रता को पाने के लिए हो रहे संघर्ष में एक शेरनी की तरह नेतृत्व किया था .वे बचपन से ही राष्ट्रवादी आंदोलन से प्रभावित हो गई थीं और जब महात्मा गाँधी ने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का आंदोलन छेड़ा तो लक्ष्मी ने उसमे हिस्सा लिया.
आजाद हिंद फ़ौज में महिला सैनिकों के महारानी लक्ष्मी बाई रेजिमेंट की २ जुलाई १९४३ को वह नेता जी सुभाष चन्द्र बोस द्वारा कर्नल बनाई गयी. इस तरह नियमित फ़ौज में कर्नल का पद पाने वाली एशिया की पहली महिला थी. अर्जी हुकूमते आजाद हिंद सरकार में महिला मामलों की मंत्री बनने वाली कर्नल लक्ष्मी प्रथम महिला थी तो आज़ादी के बाद राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ने वाली प्रथम महिला प्रत्याशी भी कर्नल लक्ष्मी सहगल ही रही. यह एक विडंबना ही है कि जिन वामपंथी पार्टियों ने द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान का साथ देने के लिए सुभाष चंद्र बोस की आलोचना की, वे ही लक्ष्मी सहगल को भारत के राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाया। लेकिन वामपंथी राजनीति की ओर लक्ष्मी सहगल का झुकाव 1971 के बाद से बढ़ने लगा था। वे अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति की संस्थापक सदस्यों में से हैं.

समाज सेवा और देश के लिए कुछ करने की भावना इन्हें अपने परिवार से विरासत में मिली थी. पिता डॉक्टर एस स्वामीनाथन मद्रास हाई कोर्ट में मशहूर वकील थे और माँ ए. वी. अम्माकुट्टी समाज सेवा के कारन पुरे मद्रास में अम्मुकुट्टी की नाम से जानी जाती थी. समाज सेवा को समर्पित इस परिवार में ही २४ अक्टूबर १९१४ को लक्ष्मी स्वामीनाथन का जन्म हुआ.

गरीबो की सेवा करना लक्ष्मी सहगल का जीवन धर्म रहा इसलिए डाक्टरी को इन्होने समाज सेवा का माध्यम बनाया. १९३८ में मद्रास मेडिकल कॉलेज से इन्होने एम् बी बी एस की डिग्री और गायेनोकोलोगी में डिप्लोमा लिया और सन १९४० में भारतीय मजदूरों की सेवा करने के उद्देश्य से ये सिंगापुर चली गयी. यहाँ आकर इन्होने अपना क्लिनिक खोला. और थोड़े ही समय में भारतीय समाज में काफी लोकप्रिय हो गयी.

स्थानीय इंडियन इंडीपेनडेंस लीग की आप सक्रिय सदस्य बनी और इस दौरान इन्होने ब्रिटिश फौज के भारतीय युद्ध बंदियों की काफी सेवा की. यह वह दौर था जब ब्रिटिश सेना को जापानी सेना के आगे समर्पण करना पड़ा था. इन भारतीय युद्ध बंदियों में अपने देश की आजादी के लिए अंग्रेजो से लड़ने का जज्बा जब लक्ष्मी सहगल ने देखा तो जब नेता जी सुभाष चन्द्र बोस सिंगापुर की एतेहासिक जनसभा को संबोधित करने आये तो लक्ष्मी सहगल ने व्यक्तिगत रूप से नेता जी से मिलकर युद्धबंदियों से अवगत कराया. इतना ही नहीं रबर कंपनीयों में काम करने वाले भारतीय मजदूरों की पत्नियों को भी आजादी की जंग में शामिल करने के लिए वो तैयार कर चुकी थी. नेता जी ने न केवल युद्धबंदियों को आज़ाद हिंद फौज में शामिल कर लिया बल्कि महिला सैनिकों के लिए भी एक अलग रेजिमेंट की स्थापना कर दी. रानी झासी रेजिमेंट के कर्नल का पद डाक्टर लक्ष्मी सहगल को ही दिया गया .

तीन महीने की सैनिक ट्रेनिंग के बाद भारतीय मजदूरों की पत्नियां प्रशिक्षित सैनिक बन चुकी थी. इस रेजिमेंट में एक हज़ार महिला सैनिक और २०० नर्से शामिल थी. डाक्टर लक्ष्मी सहगल जहाँ सैनिकों की सेवा करके डाक्टरी का फ़र्ज़ निभा रही थी वही मोर्चे पर लड़कर एक बहादुर सिपाही की भूमिका भी अदा कर रही थी. नेता जी ने जब इनकी कार्य कुशलता देखी तो अर्जी हुकूमते आज़ाद हिंद सरकार में महिला मामलों का मंत्री इन्हें बना दिया.

विमान दुर्घटना में सुभाष चन्द्र बोस की मृत्यु के बाद आज़ाद हिंद सरकार भंग हो गयी और ४ मार्च १९४६ को अंग्रेजो ने लक्ष्मी सहगल को गिरफ्तार कर लिया, गिरफ्तारी के बाद जब उन्हें भारत लाया गया तो पूरे देश की जनता ने इस वीर महिला का भव्य स्वागत किया. अखबारों ने विशेषांक निकले और जगह जगह स्वागत सभाए हुई. इनकी लोकप्रियता को देखकर अंग्रेजो को इन्हें रिहा करना पड़ा. इनके पति कर्नल प्रेम कुमार सहगल भी स्वतंत्रता सैनिकों के साथ लाल किले में कैद थे, अंग्रेजो को इन्हें भी रिहा करना पड़ा.

पति पत्नी ने कानपुर आकर अपना क्लिनिक खोला- डाक्टर लक्ष्मी सहगल क्लिनिक एंड मैटरनिटी होम, यह अस्पताल आज गरीबों का तीर्थ बन चुका है. आज भी ठीक दस बजे क्लिनिक में मौजूद आँखे डाक्टर लक्ष्मी सहगल को ही ढूँढती है.
भारत विभाजन के समय पाकिस्तान से जितने शरणार्थी कानपुर आये डाक्टर लक्ष्मी सहगल ने तन मन धन से उनकी सेवा की. सन २००२ में जब बंगलादेश का विभाजन हुआ तब कलकत्ता जाकर शरणार्थियों के लिए शिविर लगाये. डाक्टरी के माध्यम से समाज सेवा करना ही इनका संकल्प है सामाजिक न्याय में इनकी आस्था इतनी गहरी है की एक बार २ शादी के कार्ड १ ही दिन के लिए इनके पास पहुचाये गए. एक कार्ड गरीब का था और दूसरा धनवान व्यक्ती का. डाक्टर लक्ष्मी सहगल गरीब के ही घर गए. कहा, अमीर के घर जाने को तो सब लालायित रहते है गरीब के घर कौन जायेगा ? स्वतंत्रता संघर्ष और समाज सेवा के क्षेत्र में इनकी उलेखनीय सेवाओ को देखते हुए सन १९९८ में भारत के राष्ट्रपति द्वारा इन्हें पद्मविभूषण से अलंकृत किया गया. आज भी 15\241,सिविल लाइन आज भी स्वंत्रता संग्राम और मानव सेवा का प्रेरणादायक जीवंत स्मारक बनकर आने वाली पीढियों के लिए एक अद्भुत प्रेरणा का केंद्र बना हुआ है.

अफसोस की बात है कि आजादी के ६ दशकों के बाद भी , अपने जीवन की शरद ऋतु में, उनमे निराशा की भावना है. उनके अनुसार आज़ाद भारत में आईएनए को उसका वो स्थान नहीं मिला जो होना चाहिए था .वो आगे बताती हैं कि नेताजी ने हमेशा स्वतंत्रता के तीन भागों की बात की थी:. राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक जिसमे पहली हमने हासिल की, अभी दो तरह की स्वतंत्रता अभी बाकी है , महिलाओं की स्थिति अभी भी दुर्भाग्यपूर्ण है सामाजिक बुराइयों बेरोकटोक जारी है जाति व्यवस्था अभी भी पनपती है .बाल विवाह अभी भी जगह हो रहे हैं और दहेज हत्या अभी भी हो रही हैं. जो सामाजिक परिवर्तन के सपने नेताजी ने देखे थे वो आज के उपभोक्तावाद के युग में भोगिवादी सामग्री को इकट्ठा करने की चाह के नीचे दब गए हैं कुचल गए हैं
युग दधीचि देहदान अभियान से जुड कर सुभाष चंद्र बोस की अनन्य सहयोगी कैप्टन डा. लक्ष्मी सहगल ने नेत्रदान व देहदान संकल्प लिया और जीवन के साथ भी, जीवन के बाद भी देश व समाज सेवा की भावना को चरितार्थ कर दिया .
डॉक्टर लक्ष्मी सहगल की बेटी सुभाषिनी अली जिसका नाम उन्होंने अपने प्रिय नेता सुभाष चंद्र जी के नाम पर रखा था 1989 में कानपुर से मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की सांसद भी रहीं
धार्मिक कट्टरता, पुरुष दुराग्रह, जाति और आर्थिक शोषण के मध्य से अपना रास्ता बनाते हुए उन्होंने सभी भारतीयों के लिए एकता और समानता के आईएनए के जीवंत आदर्शों को रखने के काम जारी रखा . उनकी आजादी के लिए यह तड़प आज भी जीवित है. और वो आग अभी भी उनके अंदर जल रही है .


Dr. (Capt.) Lakshmi Sahgal (INA)

Captain Laxmi Sehgal is one of the lion hearted women, India ever had. She picked up the Gun for the Indian National Army (INA) founded by Netaji Subash Chandra Bose and led it like a tigress for the struggle for Indian freedom.
Lakshmi Sahgal was born Lakshmi Swaminadhan on 24.10.l914 in what was then still called Madras. Her father was Dr. S. Swaminadhan, a brilliant and leading lawyer practising criminal law at the Madras High Court. Her mother was A.V. Ammukutty, a social worker, freedom fighter and tireless campaigner for women's rights who successfully contested elections to the Madras Municipal Corporation, the Constituent Assembly, the Lok Sabha and Rajya Sabha. She also served as National President of the All India Women's Conference.
As a young girl, Lakshmi participated enthusiastically in nationalist programmes of burning of foreign goods, including her own clothes and toys and picketting of liquor-vends. She decided to study medicine not from the point of view of embarking upon a successful career but because she wanted to be of service to the poor, especially to poor women. As a result, she received the MBBS degree from Madras Medical College in l938. A year later, she received her diploma in gynecology and obstetrics.
In l940, Lakshmi left Madras for Singapore. Here she quickly established a clinic where the poorest of the poor, especially migrant Indian labour, could receive medical treatment. Not only did she establish herself as a successful, compassionate and extremely competent doctor, but she played an active role in the India Independence League which contributed greatly to the freedom movement in India.
In l942 came the historic surrender of Singapore by the British colonial power to the Japanese. Lakshmi was kept extremely busy tending to the many casualties and injuries that resulted from skirmishes. She also came in contact with many of the India POWs who were deliberating over the Japanese proposal to form an Indian army of liberation. She was extremely enthusiastic about this possibility and argued strongly in its favour. As a result, she was very much part of the deliberations that finally resulted in the formation of the INA under Gen. Mohan Singh.
Events moved very fast with the arrival of Subhas Chandra Bose in Singapore on 2nd July, l943. In the next few days, at all his public meetings, Netaji, as he was popularly known as, spoke of his determination to raise a women’s regiment, the Rani of Jhansi regiment, which would also fight for Indian independence and make it complete. On the 5th of July he spoke to Shri Yellappa, and enquired whether there was any Indian woman in Singapore who would be suitable for the task of leading such a regiment. Shri Menon immediately suggested Lakshmi’s name. Netaji insisted on meeting her immediately and she was brought to meet him quite late the same night. As soon as he put his proposal to her, she accepted it without a moment’s hesitation and, the very next day, she closed her clinic and began preparations for the formation of the Rani of Jhansi Regiment of the INA.
These preparations were underway very soon and, in a short time, a well-trained fighting force of women recruits took shape. On 21st October, l943, when the Provisional Government of Azad Hind was announced, Lakshmi was the sole woman member of its Cabinet.
The Rani of Jhansi Regiment saw active duty on the front. Lakshmi who was given the rank of Colonel, although in the popular imagination she remained ‘Captain Lakshmi’ was active both militarily and on the medical front. She played a heroic role not only in the fighting but during the terrible days that INA personnel were hunted by the victorious British troops and saved many lives because of her courage and devotion. She was finally captured and brought to India on 4th March, l946 when she received a heroine’s welcome. The British authorities realised that keeping her a prisoner would be counter-productive and she was released.
After her release, Capt. Lakshmi campaigned tirelessly for the release and rehabilitation of imprisoned and de-mobbed INA personnel and for the freedom of India. She travelled the length and breadth of the country and was able to collect huge funds for the INA soldiers and also mobilise people against the colonial power.
After the release of the prisoners, including Col. Prem Kumar Sahgal, from the Red Fort the campaign for freedom continued. In March 1947, Col. Sahgal and Capt. Lakshmi were married in Lahore (Col. Sahgal was the son of Justice Achhru Ram Sahgal, a member of the Punjab High Court Bench who was one of the judges in the Gandhi Murder Case). After their marriage, they settled down in Kanpur.
In Kanpur, Lakshmi plunged into her medical work almost immediately because the influx of refugees started even before August, l947 when it became a flood. She worked tirelessly among them for several years. Later on she established a small maternity home in a hired premise where it continues till today. Her compassion and service to the poor have become legendary in the city.
In l971, when huge numbers of refugees came from what was East Pakistan into West Bengal, Lakshmi worked at a camp in Bongaon for several months.
After this, she became very active in left politics and in, first, the trade union and, then, the women's movement although she never neglected her medical work. When the All India Democratic Women's Association was formed in l981, she became Vice-President of the largest women's organisation in the country and has been actively involved in its activities, campaigns and struggles ever since.
In October, l984, when anti-Sikh riots broke out in the city in the wake of Smt. Indira Gandhi’s assassination, she came out on the streets in defence of Sikh families and shops near her clinic and did not allow any of them to be harmed.
In l998, she was awarded the Padma Vibhushan by the President of India
Today, at 87, she still leaves for her maternity home at 9.00 every morning, seven days a week and works till late in the afternoon. Adulation and awards mean very little to her. Her unassuming manners and modesty are a source of amazement and inspiration. Her untiring and undying commitment to humanity and its service are truly exceptional.
Her daughter Subhashini Ali, who has been named after her hero Subhas, also works for the rights of women through the All India Democratic Women's Association. AIDWA is an organisation which Sahgal has been involved with for the last two-and-a-half decades. Her mother has certain striking traits of which Subhashini, a former member of Parliament from Kanpur, is proud.
Inching her way through religious bigotry, male chauvinism, caste and economic exploitation, she continues to keep alive the INA's ideals of unity and equality for all Indians. Her yearning for freedom lives on. The fire still burns.